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शिक्षा, कला एवं ज्ञान-विज्ञानं
४२३ लोक-व्यवहार, समाज व्यवस्था एवं व्यावसायिक प्रक्षिशण की अपेक्षा से ७२ जैन कलाओं का विशेष महत्त्व है।' बौद्ध शिक्षा चेतना की भाँति जैन शिक्षा चेतना भी व्यावसायिक एवं प्रौद्योगिक विषयों के अध्ययन को विशेष प्रोत्साहित करती है । जैन महाकाव्यों से यह ज्ञात होता है कि राजकुमारों को युद्ध कला इत्यादि के अतिरिक्त व्यावसायिक एवं उपयोगी ललित कलाओं की भी शिक्षा दी जाती थी। वात्स्यायनकृत कामसूत्र में प्रतिपादित ६४ कलाओं तथा जैन परम्परासम्मत ७२ कलाओं में परस्पर साम्य है। जैन परम्परा के अनुसार जो आठ कलाएं अधिक मानी गई हैं उनमें स्कन्धावारमान, नगरमान, इष्वस्त्र, त्सरुप्रवाद, अश्वशिक्षा, हस्तिशिक्षा, धनुर्वेद तथा बाहुयुद्ध नामक विद्याएं संग्राम कला और युद्धविद्या से सम्बद्ध हैं ।२ कामसूत्रोक्त ६४ कलानों में इनका अभाव है परन्तु जैन परम्परा ने उन्हें सम्मिलित किया जो इस तथ्य का प्रमाण है कि क्षत्रिय राजकुमारों की विशेष अपेक्षाओं के अनुरूप जैन मनीषियों ने कलापरक विद्याओं के अन्तर्गत संग्राम कला को भी विशेष महत्त्व दिया। भारतवर्ष की राजनैतिक दशा को देखते हुए सांग्रामिक विद्याओं को सामान्य कलाओं के अन्तर्गत समाविष्ट करना आवश्यक हो गया था। राजकुमारों आदि के लिए युद्ध कला का प्रशिक्षण प्रदान करना शिक्षा संस्था की युगीन आवश्यकता थी। जैन मनीषियों ने इस ओर विशेष ध्यान दिया तथा परम्परागत ६४ कलाओं में युद्ध कला सम्बन्धी आठ कलाओं को और बढ़ाकर कलाओं के प्रशिक्षण को व्यवहारोन्मुखी दिशा भी प्रदान की। परम्परागत जैन विद्याएं
जैन शिक्षा संचेतना 'विद्याओं' तथा 'उपविद्याओं' की परम्परागत चेतना से विशेष अनुप्राणित है । जैन दृष्टि से 'यथावस्थित वस्तु के स्वरूप का अवलोकन करने की शक्ति को 'विद्या' कहा गया है। 3 जैन परम्परा को यह श्रेय जाता है कि इसने प्राचीनातिप्राचीन विद्याओं को संरक्षण प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है । समाजशास्त्रीय अवधारणा से जुड़ी प्राच्य जैन विद्याएं 'जातिविद्या' 'कुलविद्या' 'तपविद्या' आदि के रूप में भी वर्गीकृत हैं। 'जातिविद्या' मातृपक्ष से प्राप्त विद्याएं कही गई हैं तो 'कुलविद्याएं' पितृपक्ष से सम्पुष्ट मानी जाती हैं। 'तपविद्याएँ' साधुओं के पास होती हैं । जिन्हें वे व्रत, उपवास प्रादि द्वारा सिद्ध करने में समर्थ होते हैं। जैन पौराणिक मान्यता के अनुसार विद्याधरों की एक विशेष १. द्रष्टव्य, प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० ४२५ २. वही, पृ० ४२५ ३. तु० -विद्यया-'यथावस्थितवस्तुरूपावलोकनशक्त्या ।'
-न्यायविनिश्चय, १.३८.२८२.६ ४. विशेष द्रष्टव्य, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, पृ० ५५२