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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
एवं कठोर तपश्चर्यानों को साधने की सुपात्रता रख सके। ईशावास्योपनिषद् के 'अविद्यया मृत्युं तीा विद्ययाऽमृतमश्नुते' की ही भाँति जैन धर्म में भी 'सागार' धर्म के मार्ग से चलते हुए 'अनागार' द्वारा मोक्ष प्राप्ति की मान्यता धर्म के वास्तविक तथा समग्र रूप को चरितार्थ करती है। इस प्रकार मनुष्य जीवन के परमलक्ष्य मोक्ष प्राप्ति की दिशा में 'साधु' पद अध्यात्म साधना की प्रथम सीढ़ी है तदनन्तर वह 'प्राचार्य', 'उपाध्याय' और 'अरिहन्त' पदों को प्राप्त करता हुआ 'सिद्ध' बन जाता है । वीतरागता और समताभाव मनुष्य में ज्यों-ज्यों विकसित होते रहते हैं त्यों-त्यों वह आत्मोत्थान के लिए अग्रसर होता रहता है । जैन दर्शन के अनुसार कोई भी मनुष्य चाहे वह गृहस्थ हो अथवा साधु सन्यासी, चाहे उसकी दार्शनिक मान्यताएं, कर्मकाण्ड आदि जैन धर्म के अनुसार हों अथवा अन्य धर्म सम्प्रदाय के अनुसार, 'मुक्त' अथवा 'सिद्ध' हो सकता है । मुनिधर्म : सामाजिक प्रासङ्गिकता
पारमार्थिक दृष्टि से यद्यपि जैन मुनिधर्म मूलत: समाज-निरपेक्ष एवं निवृत्तिप्रधान है परन्तु इसकी सामाजिक सन्दर्भो में भी विशेष भूमिका रही थी। जैन शास्त्रों में मुनि प्राचार के अन्तर्गत धर्मप्रभावता में वृद्धि करना भी एक महत्त्वपूर्ण दायित्व है। इस नाते मुनि धर्म समाज व्यवस्था से स्वयं ही जड़ जाता है । जैन महाकाव्यों के सामाजिक सन्दर्भो में जैन मुनियों के प्राचार-व्यवहार का विशेष प्रौचित्य स्वीकार किया गया है ।
____ इन महाकाव्यों में 'अनागार' धर्म से सम्बद्ध मुनिचर्या तथा उनके द्वारा अनुष्ठित किए जाने वाले व्रतों, नियमों तथा कठोर तपश्चर्याओं का विशेष विशदीकरण हुआ है। जैन धर्म और दर्शन की तात्त्विक चर्चा भी मुनियों द्वारा ही कहलवाई गई है जो इस तथ्य का द्योतक है कि धार्मिक दृष्टि से समाज में साधु वर्ग को सर्वाधिक उच्च स्थान प्राप्त था। साक्षात् राजत्व उनके चरणरज को शिरोधार्य करता हुआ स्वयं को कृतकृत्य मानता था । समाज में मुनिभाव के प्रति आस्था
पञ्च परमेष्ठियों में 'मुनि' अथवा 'साधु' को भी स्थान प्राप्त है इसलिए धर्मप्रभावना की अपेक्षा से समाज में मुनियों के प्रति विशेष अर्चनाभाव प्रदर्शित किया जाता था। राजा सिंहासन से उठकर, सात कदम चलकर तथा सिर झुकाकर अपनी श्रद्धा प्रकट करते थे। प्राचार्य हेमचन्द्रकृत परिशिष्टपर्व
१. ईशावास्योपनिषद्, ११ २. प्राचार्य श्री आत्माराम जी महाराज, जैन तत्त्व कलिका, पंजाब, १९८२,
प्रथम कलिका, प० २१३ ३. वही, द्वितीय कलिका, पृ० १०० ४. पदानि सप्त प्रतिगम्य राजा ननाम मूर्ना विनतारि पक्षः । -वराङ्ग., ३.१२