________________
३६४
जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
बाह्य तप के पुन: छह भेद स्वीकार किए गए हैं-१. अनशन २. अवमौदर्य, (उनोदरी) ३. वृत्तिपरिसंख्यान, ४. रसपरित्याग, ५. विविक्त-शयनासन तथा ६. काय-क्लेश। इसी प्रकार प्राभ्यन्तर तप के भी छह भेद हैं-१. स्वाध्याय, २. वैयावृत्त्य, ३. ध्यान, ४. व्युत्सर्ग, ५. विषय, तथा ६. प्रायश्चित ।' विविध प्रकार के कठोर तप
जैन मुनियों द्वारा अनेक प्रकार के दुस्साध्य कठोर तपों को साधने का वर्णन आया है। इन विविध प्रकार के तपों के अनुष्ठान हेतु उच्च शिखर, पर्वत-गुफा, गहन-वन, विशाल वृक्षों की खोखलें, उद्यान, जीर्णावशेष खण्डहर, देवालय, श्मशान-भूमि आदि एकान्त स्थान उपयुक्त समझे जाते थे ।२ सिंह, गज, रीछ आदि खूखार जानवरों तथा विषले सर्पो आदि से युक्त निर्जन वनों में मुनि लोग तपश्चर्या करते थे।3 अधिक से अधिक कायिक क्लेश प्राप्ति के उद्देश्य से वराङ्गचरित में विविध प्रकार के कठोर एवं दुस्साध्य तपों का उल्लेख आया है। इनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण तपों का वर्णन इस प्रकार है
(क) वर्षा-ऋतु तप - भीषण मेघ गर्जनामों तथा मूसलाधार वर्षा ऋतु में तपस्या करना वर्षा ऋतु में अनुष्ठित किया जाने वाला विशेष प्रकार का तप था । ऐसा माना जाना था कि वर्षा के कारण शरीर की मलिनता प्रक्षालित हो जाती है तथा शरीर स्वच्छ हो जाता है ।६ निरन्तर मूसलाधार वर्षा में भीगते हुए भी मुनि लोग निष्कम्प शरीर होकर तप-साधना में लीन रहते थे। कुमारसंभव महाकाव्य में कालिदास ने भी पार्वती की कठोर तपश्चर्याों का वर्णन करते हुए वर्षाऋतु तप का ऐसा ही वर्णन किया है ।
१. चन्द्र०, १८.११२-१३ । २. शून्यालये देवगृहे श्मशाने महाटवीनां गिरिगह्वरेषु । उद्यानदेशे द्रुमकोटरे वा निवास प्रासीदृषिसत्तमानाम् ।।
-वराङ्ग०, ३०.२६ तथा ३१.३७-३८ ३. वही, ३०.२७ ४. वही, ३०.२८, ३१, ३१.४६-४७ ५. वर्षासु शीतानिलदुर्दिनासु घोराशनिस्फूर्जथुनादितासु । दिवानिशं प्रक्षरदम्बुदासु ते वृक्षमूलेषु निषेदुरार्याः ॥
-वही, ३०.२८ ६. धाराभिधौताङ्गमला: सुलेश्य: खद्योत्मालारचितात्ममालाः ।
-वही, ३०.१३, ३१.४७ ७ वही, ३१.४७ ८. कुमारसंभव, ५.२५ .
xx