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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
अशुभ कर्मों का भेद तब समाप्त हो जाएगा। संसार के प्राणी जो अनेक गुणों को धारण करने की चेष्टा करेंगे वे निराश ही रह जाएंगे क्योंकि तब गुणी भिन्न क्षणों में उदित होंगे ।' पद्मानन्द महाकाव्य में भी 'क्षणिकवाद' की आलोचना करते हुए कहा गया है कि समस्त संसार के ज्ञानादि भी बौद्धमतानुसार क्षणिक मान लिए जाने पर स्मरण, प्रत्यभिज्ञा आदि भाव, पिता-पुत्र, पति-पत्नी मादि सम्बन्ध तथा पाप-पुण्य आदि व्यवस्था भी छिन्न-भिन्न हो जाएगी।२ चित्त-सन्तान ज्ञान की धारा को प्रात्मा सिद्ध करने की बौद्ध मान्यता भी इससे खण्डित हो जाती है । ६. नैरात्म्यवाद
बौद्ध धर्म के प्रवर्तक महात्मा बुद्ध ने प्रात्मा का अस्तित्व नहीं स्वीकारा है। जटासिंह नन्दि के अनुसार तब भगवान् बुद्ध की करुणा का क्या होगा ? क्योंकि प्रात्मा तथा चेतना के बिना करुणा कहां उत्पन्न होगी? इस प्रकार आत्मा का निराकरण करना स्वयं भगवान् बुद्ध के करुणाशील होने के प्रति ही सन्देह उत्पन्न करता है । १०. पौराणिक देववाद
वेद मूलक ब्राह्मण संस्कृति में पुरुष, ईश्वर प्रादि द्वारा सृष्टि सृजन की मान्यता पालोच्य काल में पौराणिक दार्शनिक वाद के रूप में पल्लवित हुई थी। अनेक देव-शक्तियों के साथ सष्टि रचना का सम्बन्ध जोड़ा जाने लगा था। परिणामतः हिन्दू धर्म में ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि प्राराध्य देवों में से किसी एक को महत्त्व देने की अपेक्षा से विभिन्न धार्मिक सम्प्रदाय अस्तित्व में आ गए थे । आठवीं
१. क्षणिका यदि यस्य सर्वभावा फलस्तस्य भवेदयं प्रयासः । ___ गुणिनां हि गुणेन च प्रयोगो न च शब्दार्थमवैति दुर्मतिः ॥
-वराङ्ग०, २४.४६ २. पद्मा०, ३.१६०-६५ तथा० तु०मन्त्रिन् ! विमुञ्च क्षणिकत्वादितां निरन्वयं वस्तु यदीह दृश्यते ।
-वही, ३.१६० ३. चन्द्र०, २.८४-८५ ४. नैरात्म्यशून्यक्षणिकप्रवादाद् बुद्धस्य रत्नत्रयमेव नास्ति।
रत्नत्रयाभावतया च भूयः सर्वं तु न स्यात्कुत प्राप्तभावः ।। मृषव यत्नात्करुणाभिमानो न तस्य दृष्टा खलु सत्त्वसंज्ञा ।
-वराङ्ग०, २५.८२-८३