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धार्मिक जन-जीवन एवं दार्शनिक मान्यताएँ
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की बलि दिए जाने की प्रथा थी। ' किसी प्रकार के दुष्टस्वप्ननिवारणार्थ भी देवी के मन्दिर में कुक्कुट आदि की बलि चढ़ाने की मान्यताएं समाज में रूढ़ हो चुकी थीं। वराङ्गचरित महाकाव्य में यज्ञादि अवसरों पर ब्राह्मणों द्वारा भी अनेक पशुओं की बलि देने का उल्लेख पाया है।3 जैन कवियों ने बलि स्थान में कटे हुए पशुओं की दुर्गति का वीभत्स वर्णन किया है। कहीं कहीं पर बलि प्रथा का धार्मिक लोकविश्वास इतना प्रबल था कि जैनानुयायियों को भी इस प्रथा का लक्ष्य होना पड़ा । 'यशस्तिलकचम्पू' तथा 'यशोघरचरित' आदि ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि यद्यपि जैन समाज में पशुबलि निषिद्ध थी किन्तु प्राटे प्रादि से निर्मित पशुओं के वध से बलिप्रथा का किसी न किसी रूप में अस्तित्व अवश्य रहा था । यशोधर के अनिष्ट निवारण के लिए उसकी माता चण्डी-मारी के मन्दिर में कुक्कुट की बलि चढ़ाने की सम्मति देती है। यशोधर ने पशु हिंसा के भय से ऐसा नहीं किया तथा प्राटे के मुर्गे की बलि चढ़ाकर माता को सन्तुष्ट किया । इस अवसर पर यह भी उल्लेख मिलता है कि यशोधर द्वारा प्राटे के मुर्गे की बलि चढ़ाने के अवसर पर समस्त प्राणियों की बलि चढ़ाने से जितना पुण्य प्राप्त हो सकता था उतने पुण्य-प्रर्जन का संकल्प भी किया गया । इसी पाप के कारण यशोधर को पशु-योनियों में भी भटकना पड़ा। संभवतः दक्षिण भारत आदि कई स्थानों में १०वीं शताब्दी में बलि-प्रथा का अन्धविश्वास बहुत जोर पकड़ गया था तथा एक बहुत बड़े समाज में व्याप्त इस अन्ध-विश्वास के प्रति संभवतः समग्रक्रान्ति करना तत्कालीन परिस्थितियों के अनुकूल न रहा हो । ७ वैसे जैन मुनि बहुत अधिक संख्या में पशु १. वराङ्ग०, २४.२६, यशो०, १.२३ २. सातु तेन बलिना परितृप्ता स्वप्नदोषमचिरेण निहन्ति । -यशो० ३.१३ ३. समस्तसत्वातिनिपातनेन यज्ञेन विप्रा न कथं प्रयान्ति ।।
-वराङ्ग०, २५.२५ ४. मांसस्तृपाः स्वयं यत्र माक्षिकापटलावृताः । छर्दिताश्चण्डमार्येव बहुभक्षणदुर्जराः ।।
-यशो०, १.४३ तथा वराङ्ग०, २४.२५ ५. यशो० ३.१३-१८, तथा तु०अन्थथा तनय तर्पय देवीं शालिपिष्टमय कुक्कुट हत्या।
-यशो०, ३.१८ ६. सर्वेषु सत्वेषु हतेषु यन्मे भवेत्फलं देवि तदत्र भूयात् । ___ इत्याशयेन स्वयमेव देव्याः पुरः शिरस्तस्य चकर्तशस्त्र्या ॥
–यश०, पृ० १६३ ७. गोकुलचन्द्र जैन, यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन, पृ० ४६