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धार्मिक जन-जीवन एवं दार्शनिक मान्यताएं
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५. श्रीपर्वत–संभवतः करनूल जिले का पहाड़ है जो आज भी प्रसिद्ध तीर्थ स्थान माना जाता है ।' कहते हैं कि इस पर्वत में 'श्री' नाम के महर्षि ने एक हजार वर्ष तक कठोर तपस्या की थी।
६. उज्जयन्त पर्वत-इसी पर्वत के वनों में श्री कृष्ण रासलीलाएं भी करते थे । फलत उज्जयन्त पर्वत एक प्रसिद्ध तीर्थस्थल बन गया था ।3 जैन धर्म की दृष्टि से भी यह 'तीर्थ स्थान' रहा था । तीर्थङ्कर नेमिनाथ की यह तपोभूमि रही । थी।४
(ख) दार्शनिक मान्यताएं महाकाव्य युग का जैन दर्शन : प्रवृतियां और प्रयोग
___ आगम युग का जैन दर्शन मूलतः आस्थाप्रधान दर्शन रहा था। विभिन्न दार्शनिक समस्याओं का शंका-समाधान अथवा उपदेशपरक शैली से प्रतिपादन किया जाता था । आगमों की दार्शनिक चर्चा अत्यन्त बिखरी हुई और अव्यवस्थित रही है । पं० दलमुख मालवणिया महोदय ने आगम युगीन दार्शनिक प्रवृतियों का दिग्दर्शन कराते हुए कहा है कि "प्रत्येक विषय का निरूपण जैसे कोई द्रष्टा देखी हुई बात बता रहा हो इस ढंग से हुआ है। किसी व्यक्ति ने शङ्का की हो और उसकी शङ्का का समाधान युक्तियों से हुआ हो यह प्रायः नहीं देखा जाता। वस्तु का निरूपण उसके लक्षण द्वारा नहीं किन्तु भेद-प्रभेद के प्रदर्शन पूर्वक किया गया है। प्राज्ञाप्रधान या श्रद्धाप्रधान उपदेश यह पागम युग के जैनदर्शन की विशेषता है।"५
__ जैन दर्शन के विकास सम्बन्धी जिन चार युगों का मालवरिया जी ने विवेचन किया है। उनमें से 'अनेकान्त व्यवस्था युग' जैन महाकाव्यों की दार्शनिक प्रवृत्तियों को मार्ग दर्शन दे रहा था। चौथी-पांचवीं शताब्दी से सातवी-आठवीं शताब्दी ई० इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कही जा सकती है कि नागार्जुन, वसुबन्धु, दिङ्गनाग आदि बौद्ध दार्शनिकों द्वारा भारतीय दर्शन में जिस तर्फप्रधान दार्शनिक १. वराङ्गचरित, (हिन्दी अनुवाद), खुशाल चन्द गोरावाला, पृ० ? २. श्रीपर्वते श्रीः किल संचकार तपो महद्वर्षसहस्रमुग्रम् ।
-वराङ्ग०, २५.५८ ३. तमुज्जयन्तं धरणीधरेन्द्र जनार्दनक्रीडवनप्रदेशम् ।
-वराङ्ग०, २५.५६ ४. वही, २५.५६ ५. दलसुख मालवणिया, जैन दार्शनिक साहित्य के विकास की रूपरेखा, बनारस
१६५२, पृ० ३ ६. वही, पृ० ४-५