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धार्मिक जन-जीवन एवं दार्शनिक मान्यताएं
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सभी को सन्देहों से ग्रस्त घोषित कर दिया।' ब्रह्मसूत्र के अन्य टीकाकारों तथा षड्दर्शन के अन्य दार्शनिकों ने भी इसी शैली में अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, जीवशरीर-परिमाणवाद आदि जैन मान्यताओं का खण्डन किया है।
आस्तिक और नास्तिक दर्शनों का नवीन ध्रुवीकरण
उपर्युक्त दार्शनिक पृष्ठभूमि के सन्दर्भ में ही हमें जैन महाकाव्यों में प्रतिपादित दार्शनिक विचारों का मूल्याङ्कन करना चाहिए और यह जान लेना चाहिए कि भारतवर्ष की समग्र दार्शनिक चेतना उस समय किस दिशा की ओर मुड रही थी। जैन महाकाव्यों के काल में उपलब्ध होने वाले दार्शनिक वादों का समाजशास्त्रीय दृष्टि से यदि मूल्याङ्कन किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि दसवीं शती ई० के बाद लोकायत दर्शनों की सामाजिक लोकप्रियता बढ़ती जा रही थी। शायद उसका एक मुख्य कारण यह भी हो सकता है कि जैन, बौद्ध तथा वैदिक षड्दर्शनों की तत्त्वमीमांसा एवं प्रमाणमीमांसा चिन्तनपरक ऊचाइयों को छूने के बाद भी एक दूसरे के विरोधी एवं निर्बल पक्षों के भी प्रचार-प्रसार में लगी हुई थीं और इस कारण दर्शनों की मौलिकता का ह्रास होने के साथ-साथ पिष्टपेषणता को भी बढ़ावा मिल रहा था। दूसरी ओर लोकायत दर्शन पहले की अपेक्षा और अधिक सबल तर्कों के सम्पादन में अधिक कारगर सिद्ध हो रहे थे। इस सन्दर्भ में 'षड्दर्शनसमुच्चय' के रचयिता हरिभद्रसूरि तत्कालीन दार्शनिक जगत् की व्यापक गतिविधियों की जानकारी देने में अत्यन्त सहायक सिद्ध हुए हैं। 'षड्दर्शनसमुच्चय' के टीकाकार गुणरत्न सुरि ने भी १५वीं शताब्दी के दार्शनिक जगत् का जैसा सामयिक चित्रण प्रस्तुत किया है उससे ऐसा लगता है कि समाज में एक अोर लोकायतिक दर्शन चेतना फल-फूल रही थी तो दूसरी ओर उसकी प्रतिक्रियास्वरूप अनेक सम्प्रदायनिष्ठ धार्मिकवाद दर्शन का रूप लेते जा रहे थे। गुणरत्न ने लोकायतिक तत्त्वमीमांसा का विशद विवेचन करते हुए लोकायतिक साधुओं का भी उल्लेख किया है । ये शरीर में कापालिकों की भांति भस्म लगाते थे तथा जाति प्रथा का खण्डन करते थे । ये प्रात्मा, पाप-पुण्य आदि को नहीं मानते
१. तस्मात् स्थाणुर्वा पुरुषो वेति ज्ञानवत् सप्तत्व-पंचत्वनिर्धारणस्य फलस्य
निर्धारयितुश्च प्रमातुस्तत्करणस्य प्रमाणस्य च तत्प्रमेयस्य च सप्तत्वपंचत्वस्य च सदसत्त्वसंशये साधु सथितं तीर्थकरत्वमृषभेणात्मनः ।
–भामती, २.२.३३ २. षड्दर्शनसमुच्चय, १ पर गुणरत्नकृत टीका, (ज्ञानपीठ संस्करण), पृ०
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