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धार्मिक जन-जीवन एवं दार्शनिक मान्यताएं
३८१ प्रतिदिन वृद्धि होती जा रही थी। गुणरत्न ने ऐसे लगभग २७ वादों का उल्लेख किया है।'
जैन महाकाव्यों के आलोच्य युग की उपयुक्त समग्र दार्शनिक चेतना के सन्दर्भ में जैन महाकाव्यों की दार्शनिक चर्चा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कही जा सकती है। जैन महाकाव्यों में पूरे के पूरे सर्ग ही दार्शनिक चर्चा आदि के लिए निबद्ध हुए हैं। प्रायः महाकाव्यों में किसी जैन मुनि के आगमन और उसके द्वारा दिए गए धर्मोपदेश की कथानक योजना के अन्तर्गत दार्शनिक चर्चा का अवसर जुटाया गया है। पद्मानन्द प्रादि कुछ महाकाव्यों में राजा की मंत्रिपरिषद् में दार्शनिक चर्चा-परिचर्चा होने का वर्णन पाया है।
पालोच्य जैन महाकाव्यों से सम्बद्ध दार्शनिक महत्त्व की सामग्री को दो भागों में विभक्त किया गया है। सर्वप्रथम जैन दर्शन के तथ्यों का विवेचन है तदनन्तर उन अनेक जैनेतर दार्शनिक वादों की स्थिति स्पष्ट की गई है जिनके प्रति महाकाव्य के लेखकों ने अपनी दार्शनिक प्रतिक्रिया व्यक्त की है।
१. जैन-दर्शन प्रमारणव्यवस्था
जैन दर्शन के अनुसार प्रमाण सामान्य का लक्षण है-- जिसके द्वारा पदार्थ जाना जाए।४ जैन तर्कशास्त्री नैयायिकों की भाँति इन्द्रिय विषय व सन्निकर्ष को प्रमाण नहीं मानते फलत: वे स्व-पर-व्यवसायि ज्ञान को प्रमाण कहते हैं । वराङ्गचरित महाकाव्य में जैनाभिमत प्रमाणव्यवस्था का निरूपण करते हुए कहा गया है कि पदार्थों का ज्ञान प्रमाणों तथा नयों से ही संभव है। प्रमाण को मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित किया गया है-(१) प्रत्यक्ष तथा (२) परोक्ष । प्रत्यक्ष के तीन भेद किए गए हैं - (१) अवधिज्ञान (२) मनःपर्यय ज्ञान तथा (३) केवलज्ञान । प्रथम दो भेद केवल मूर्त वस्तुओं का ज्ञान करा सकने में समर्थ हैं किन्तु
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१. षड्दर्शनसमुच्चय, १ पर गुणरत्नटीका, पृ० ३०-६१ २. वराङ्ग०, सर्ग २६; चन्द्र ०, सर्ग १८; धर्म०, सर्ग १५; पद्मा०, सर्ग ३ ३. पद्मा०, सर्ग ३ ४. प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणम् । -कषायपाहुड, १.१.१.२७ ५. स्व-पर-व्यवसायिज्ञानं प्रमाणम् । -प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार, १.२ ६. तेषामधिगमोपायः प्रमाणनयवर्त्मना। -वराङ्ग०, २६.४५ ७. प्रत्यक्षं च परोक्षं च प्रमाणं तद्विधा स्मृतम् । -वही, २६.४५