________________
जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
विवेचन को नई दिशा प्राप्त हुई उससे वैदिक एवं जैन दर्शन के चिन्तकों के सामने एक नई चुनौती भी आ खड़ो हुई कि वे बौद्ध दार्शनिकों के आक्रामक तर्कबाणों का वैसा ही जबाब दें। फलतः सभी भारतीय दर्शन के सम्प्रदायों में तर्कप्रधान वादों-प्रतिवादों को स्वर मिला नैयायिक वात्स्यायन, मीमांसक शबर आदि ने बौद्धों के 'शून्यवाद' तथा 'क्षणिकवाद' का खण्डन करते हुए अपने मतों की पुन: उपस्थापना की।' इसी खण्डन-मण्डन प्रधान दार्शनिक वातावरण में जैन दार्शनिकों ने अपनी तत्त्वमीमांसा को नया रूप प्रदान किया। इस दिशा में आगमों के प्रकीर्ण विषयों को संक्षिप्त एवं व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत करने की अपेक्षा से सर्वप्रथम आचार्य उमास्वाति ने संस्कृत भाषा का प्राश्रय लेकर जैन दर्शन के सार को 'तत्त्वार्थसूत्र' नामक ग्रन्थ में निबद्ध किया। जैन दर्शन को 'तत्त्वार्थसूत्र' जैसे सारगर्भित ग्रन्थ का विवेचनात्मक आधार मिल जाने पर छठी-सातवीं शताब्दी में अकलंक, सिद्धसेन, हरिभद्र सूरि आदि दार्शनिकों ने अनेकान्त व्यवस्था के औचित्य की दार्शनिक जगत् में विशेष पुष्टि की। सिद्धसेन ने अद्वैत, न्याय, सांख्य, बौद्ध आदि मतों को संग्रह, पर्यायाथिक, द्रव्यार्थिक, ऋजुसूत्र आदि नयों में समाविष्ट कर उनके समन्वयात्मक रूप में जैन दर्शन के 'अनेकान्तवाद' को चरितार्थ किया ।२ समन्तभद्र, सिद्धसेन आदि का यह भी महत्त्वपूर्ण योगदान माना जाता है कि उन्होंने नाना प्रकार के विरोधी वादों में सामञ्जस्य स्थापित करने की नवीन तर्क प्रणाली को 'अनेकान्तवाद' की अपेक्षा से समृद्ध बनाया। समन्तभद्र, मल्लवादी आदि दर्शनाचार्यों ने इस प्रयास को तर्कवैज्ञानिक एवं विधिपरक आयामों से जोड़ा।
जटासिंह नन्दि को अनेकान्त अवधारणा
___ जैन महाकवियों की दार्शनिक प्रवृतियों की कड़ी भी उपर्युक्त ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से जुड़ी हुई है। सातवीं-आठवीं शती ई० से सम्बद्ध जटासिंह नन्दि का इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण योगदान रहा था। प्राचार्य जटासिंह ने वराङ्गचरित महाकाव्य में अपने से पूर्ववर्ती जैन दार्शनिकों की 'अनेकान्तवाद-व्यवस्था' की परम्पराओं को आगे बढ़ाते हुए कहा है कि नियति, कर्म, काल, भाग्य, ईश्वर आदि को सष्टि का प्रधान कारण मानना केवल मात्र एक नय की अपेक्षा से ही सत्य है किन्तु एकान्तिक नयमूलक यह तत्त्वचिन्तन मिथ्यात्व का ही साधक है अतएव
१. दलसुख मानवणिया, जैन दार्शनिक साहित्य के विकास की रूपरेखा,
पृ० ५ २. वही, पृ० ३