________________
जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
मुनियों के उपदेश श्रवण के लिए जनसाधारण के मध्य राजा सपरिवार अपनी सेना तथा शासन के उच्चाधिकारियों सहित उपस्थित रहता था।'
... ८. मुनिचर्या का स्वरूप सांसारिक विरक्ति के कारण :
गृहस्थ जीवन के प्रति रागमोह का त्याग तथा सांसारिक प्रपञ्चों के प्रति उदासीनता का होना मुनिवृत्ति के लिए आवश्यक माना जाता था ।२ विभिन्न महाकाव्यों में संसार के प्रति विरक्तिभावना के अनेकविध कारण कहे गए हैं। उदाहरणार्थ वराङ्गचरित एवं चन्द्रप्रभ महाकाव्य में राजा वराङ्ग तथा श्रीषेण को उल्कापतन देखकर वैराग्य भावना का उद्बोधन हुमा । बूढ़े बैल को दलदल में फंसते देखकर तथा पागल हाथी द्वारा नागरिकों के कुचले जाने की घटना पर भी विरक्ति होने का उल्लेख पाया है। प्रद्युम्नचरित तथा वर्धमानचरित महाकाव्यों में मुनियों के धर्मोपदेश ही विरक्ति-भाव के कारण रहे थे। प्राशय यह है कि प्रव्रज्या ग्रहण करने से पूर्व सांसारिक विरक्ति का उद्बोधन होना आवश्यक माना गया है । प्रव्रज्या ग्रहण करने के उपरान्त ही मुनि वृत्ति का प्रारम्भ होता है। मुनि आचार
साधक प्रव्रज्या ग्रहण करने के तुरन्त बाद तथा मुनिचर्या प्रारम्भ करने से . पूर्व गृहस्थ अवस्था में पहनी जानी वाली वेषभूषा को उतार देते थे तथा केशलुंचन किया जाता था। तदनन्तर दीक्षागुरु नवदीक्षित भूमि को सर्वप्रथम मुनि धर्म
और प्राचार की शिक्षा देते थे । वराङ्गचरित में राजा वराङ्ग तथा अन्य राजामों द्वारा प्रव्रज्या ग्रहण करने के बाद मुनि वरदत्त केवली द्वारा इन सबको जिन धर्मदर्शन तथा प्राचार परक तत्त्वों का उपदेश दिया गया उनमें स्थावर जंगम जीवों की चौदह श्रेणियां, मिथ्यादृष्टि, सासादन, मिश्र, अविरत, देशविरत, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्ति करण, उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, संयोगकेवली तथा प्रयोगकेवली-चौदह गुण स्थान; दण्ड भेद; मन-वचन-काय-तीन
१. वराङ्ग०, ३.१४-१६, प्रद्यु० ६.२६-३० २. वराङ्ग०, २८.७३-७४ २६.१७-२४ ३. वराङ्ग०, २८.२५, चन्द्र०, ४.१८, धर्म० २०.३ ४. चन्द्र०, १.६६, ११.६ ५. प्रद्यु० ६.८४, वर्ध० १६.१६५ ६. निरस्तभूषाः कृतकेशलोचाः । -वराङ्ग०, ३०.२;
केशांस्स्तत्रैवोदरवनत्स्वयम् । परि०, ११.१४६ ७. वराङ्ग०, ३०.३