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धार्मिक जन-जीवन एवं दार्शनिक मान्यताएं के अनुसार राजा मुनि को देखकर हाथी से उतर गया तथा मुनि के चरणों में पड़कर उसने प्रणाम किया।' चन्द्रप्रभ के अनुसार मुनि के दर्शनार्थ जाते हुए राजा राज्य-चिह्नों को धारण नहीं करते थे ।२ इस अवसर पर राजा आदि भी मुनि की तीन बार प्रदक्षिणा करते थे तदनन्तर तीन बार प्रणाम किया जाता था तथा तीन बार मुनि की जय-जयकार की जाती थी3 मुनि दर्शन के समक्ष 'पो३म्' कहने तथा पंचांग-स्पर्श करने की प्रथा भी प्रचलित थी। जैनमुनि धर्म-दर्शन के मौलिक तत्त्वों का उपदेश देते थे जिनका श्रवण करना प्रत्येक गृहस्थी के लिए पुण्यकारी माना जाता था ।५
मुनियों के उपदेश श्रवण के द्वारा गृहस्थ व्यक्ति के सभी पाप समूल नष्ट हो जाने की मान्यता प्रचलित थी।६ उपदेश श्रवण की दृष्टि से श्रावकों के चौदह प्रकार भी बताए गए हैं। वराङ्गचरित में श्रावक की योग्यता और पात्रता को देखकर ही मुनि को उपदेश देने का विधान किया गया है। उदाहरणार्थ मूर्ख अथवा अज्ञ व्यक्ति को साधारण ज्ञान, शिष्टार और व्रत-नियमादि का; इष्टवियोग से दुःखी व्यक्ति को कर्मोपदेश का; चंचल बुद्धि वाले व्यक्ति को संसार एवं शारीरिक अपवित्रता का, धन एवं विषयों के लोभी व्यक्ति को संयम का, निर्धन व्यक्ति को व्रतादि के अनुष्ठान का तथा चोरी-व्यभिचार आदि दुष्कर्मों में फंसे हुए व्यक्ति को श्रद्धा एवं जिन-पूजा का उपदेश देना चाहिए।
१. उत्ततार मुनि दृष्ट्वा कुञ्जराद्राजकुञ्जरः। -परि०, १.६७ २. राजलीलां परित्यज्य चामरादि परिच्छदाम् । -चन्द्र०, २.३५,
प्रद्यु०, ६.३१ ३. विपरीत्य प्रणम्य त्रिस्त्रियेति निगद्य स। विरुक्तमखिलं कृत्वा न्यविक्षत मुनेः पुरः ।।
-चन्द्र०, २.३७, प्रद्य०, ६.३१ ४. परि०, १.७०, २.४३, ११,३३ ५. वराङ्ग०, सर्ग, ३,११; चन्द्र०, सर्ग, २,१८; धर्म, सर्ग, ११; नेमि०, सर्ग
१५, पदमा०, सर्ग० २; जयन्त०, सर्ग १५, प्रद्यु०, सर्ग ६; वर्ष०, सर्ग ३
तथा ६ ६. यः संशृणोति जिनधर्मकथामुदारां पापं प्रणाशमुपयाति नरस्य तस्य ।
-वराङ्ग०, १.१६ तथा नेमि०, १५.७५, प्रद्यु०, ५.१४५ .. ७. वराङ्ग०, १.१५ ८, प्राज्ञस्य हेतुनयसूक्ष्मतरान्पदार्थान्, मूर्खस्य बुद्धिविनयं च तप: फलानि ।
दुखादितस्य जनबन्धुवियोगहेतुं, निवेदकारणमशौचमशाश्वतस्य ॥ लुब्धस्य शीलमधनस्य फलं व्रतानां, दानं क्षमा च धनिनो विषयोन्मुखस्य । सद्दर्शनं व्यसनिनो जिनपूजनं च, श्रोतुर्वशेन कथयेत्कथकोविदज्ञः ।।
-वही, १.१७-१८