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धार्मिक जन-जीवन एवं दार्शनिक मान्यताएं
(ख) ग्रीष्म ऋतु तप'-ग्रीष्म ऋतु के आगमन पर 'अस्नान-योग' व्रत धारण किया जाता था। पसीने तथा धूल से लथपथ शरीर होकर मुनि लोग जेठ के महीने में सूर्य की ओर मुख करके ध्यानावस्था प्राप्त करते थे ।२ इतने दाहक वातावरण में कर्मबन्धनों के भस्म होने की मान्यता प्रचलित थी। कालिदास के कुमारसंभव में भी ऐसे ग्रीष्म ऋतु तप को 'पंचाग्नि' तप कहा गया है।
. (ग) शीत-ऋतु तप-शीतकाल में जब शीतल तथा बर्फीली वायु चलती थी ऐसे अवसरों पर 'अवकाश' तथा 'अस्पर्श' योग मुद्रा में निश्चल भाव से शीतऋतु-तप, किए जाते थे। कुमारसंभव में पार्वती के तपस्या वर्णन के अन्तर्गत इस तप की चर्चा पाई है।
इस प्रकार जिनेन्द्रोक्त अनेक विधानों का तपश्चर्या के अवसर पर अनुशरण किया जाता था । चारदिन, छहदिन, पाठदिन, एकपक्ष, एकमास पर्यन्त के उपवासों, चान्द्रायण आदि व्रतों, तथा विविध प्रकार के योगों का सम्पादन करते हुए मुनि वर्ग द्वारा कठोर तपों को साधा जाता था । मुनि विहार
देश-देशान्तरों में भ्रमण करना तथा जैन तीर्थ स्थानों का दर्शन करना
१. वराङ्ग, ३०.३५.३७ २. अस्नानभूरिव्रतयोगभाराः स्वेदाङ्गमासक्तरजःप्रलिप्ताः । निदाघसूर्याभिमुखा नृसिंहा व्यत्सृष्टगात्रा मुनयोऽभितस्थुः ।।
-वही, ३०.३५ ३. निदाधतीक्ष्णार्ककरप्रहारानुरस्स्वथादाय निरस्तपापाः ।
-वही, ३०.३७ ४. कुमार०, ५.२३ ५. वराङ्ग०, ३०.३२-३४, ३१.४८-४६ ६. हेमन्तकाले धृतिबद्धकक्षा दिगम्बरा ह्यभ्रवकाशयोगाः । अस्पर्शयोगा मलदिग्धगात्रा प्रसारणाकुञ्चनकम्पहीनाः ।।
- -वही, ३०,३२, ३३ ७. कुमार०, ५.२६ ८. जिनेन्द्रसूत्रोक्तपथानुचारी संयम्य वाक्कायमनांसि धीरः । सुदुर्धरं कापुरुषरचिन्त्यं द्विषट्प्रकारं तप पाचचार ॥
-वराङ्ग०, ३१.५० ६. वही, ३०.६४, ३१.४६ १०. मुनि नथमल, जैन दर्शन-मनन और मीमांसा, पृ० १०६, तथा तु.
वराङ्ग०, ३१.५५