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श्रावास व्यवस्था, खान-पान तथा वेश-भूषा
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से इन ग्रामों में ब्राह्मण वर्ग निवास करता था तथा ये अग्रहार - ग्राम शिक्षा के केन्द्र भी बन गए थे । ' अग्रहार ग्रामों के समान ही मध्यकालीन भारत में निगम-ग्रामों में भी मुख्य रूप से व्यापारी वर्ग निवास करता था जिन्हें 'नैगम' भी कहा जाता था । निगमों में प्रभूतमात्रा में अनाज का उत्पादन होता था इसके साथ ही ग्रामों
इक्षु-यन्त्रों के द्वारा गन्ने के रस से गुड़ आदि का उत्पादन भी किया जाता था । अ इस प्रकार निगमों में अनाज आदि का भण्डार होने के कारण ये व्यापार के प्रसिद्ध केन्द्र बन चुके थे । दण्डी के दशकुमार चरित तथा जैन संस्कृत महाकाव्यों द्वारा वरिणत निगमों की स्थिति ग्राम सदृश ही थी । एक प्रोर इन निगमों में मोरों की ध्वनि होने, गायों के रम्भाने तथा मुर्गों की उछल-कूद के कारण ग्रामीण वातावरण बना हुआ था तो दूसरी ओर समृद्धि वैभव के कारण इनकी तुलना विकसित नगरों से भी की जा सकती थी । ५ इन निगमों में ऊँचे-ऊँचे प्रासाद भी बने होते थे तथा राज मार्ग आदि विभिन्न प्रकार की उन्नत सुविधाएं भी इन्हें प्राप्त थीं । फलतः निगमों के लिए 'वणिग्ग्राम' ६ तथा 'नृपभोग्यनगर '७ श्रादि संज्ञाओं का भी प्रयोग हुआ है ।
दक्षिणभारत के प्रथम द्वितीय शताब्दी ईस्वी के आन्ध्र सातवाहनयुगीन राज्य-व्यवस्था के सन्दर्भ में 'निगम' नामक नगरों के अस्तित्व होने की पुष्टि दक्षिण भारत के शिलालेखों से भी होती है। 5 आन्ध्र सातवाहन काल में दक्षिण भारत के भरुकच्छ (भड़ोंच), सोपारा, करणहेरी, कल्यान, पेठन, गोवर्धन, घन्नकटक,
9. Thapar, R.. A History of India, Vol. I, p. 176
२. Gupta, D.K., Society and Culture in the Time of Dandin Delhi, 1972, p. 133
३. चन्द्र०, २.११३
४. ग्रहं च पञ्चबारणवश्यः श्रावस्तीमभ्यवर्तिषि ।
मार्गे च महति निगमे नैगमानां ताम्रचूड़युद्धकोलाहलो महानसीत् । -Daśakumāracarita, ed. Kale, M.R., II. 5
तथा चन्द्र० १.१६, २.११३, ५.४, १३.४६, द्विस०, ४.६६
५. विश्वकर्मा०, ८.४०-४६ तथा चन्द्र० २.११३, द्विस०, ४.६६
६. Gupta, Soclety and Culture, p. 310
८. तु० - निगमादिनगर्यस्तु नृपभोग्या उदीरताः । विश्वकर्मा ०, ८. ३१
७.
Puri, B.N., History of Indian Administration, Vol. I, Bombay, 1968, p. 162