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श्रावास - व्यवस्था, खान-पान तथा वेश-भूषा
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एवं
राज्य की ओर से समुचित सुविधाएं प्राप्त होने पर निगमों का उत्तरोत्तर आर्थिक विकास होता रहा । अनाज तथा अन्य गुड़ प्रादि खाद्य वस्तुनों का उत्पादन मूलतः निगमों में ही होता था । अधिकांश रूप से इनमें निवास करने वाले 'नैगम' वर्ग का व्यवसाय था— कृषि उत्पादन करना तथा राज्य में उसका वितरण करना । वास्तुशास्त्र के कुछ ग्रन्थों के अनुसार 'निगम' नामक नगर में शिल्पी वर्ग भी निवास करता था । फलतः कृषि शिल्प के व्यवसाय से निगम अत्यधिक समृद्ध एवं ऐश्वर्य सम्पन्न होते थे । १६वीं शताब्दी ई० के वीरमित्रोदय नामक ग्रन्थ के उल्लेखानुसार नेगमवर्ग रत्न प्रादि बहुमूल्य वस्तुनों का व्यापार भी करने लगे थे । दक्षिण भारत के प्रान्ध्र सातवाहन तथा प्रारम्भिक पल्लव वंशी राजाओं के काल में भारतवर्ष में पांच छ: निगम ऐसे भी थे जिन्हें देश की सर्वोच्च व्यापारिक केन्द्रों के रूप में मान्यता प्राप्त हो चुकी थी। डी० एन० शुक्ल महोदय के विचारानुसार 'निगम' का वास्तविक अर्थ 'Trade Route' था किन्तु बाद में निगम व्यापारिक ग्राम अथवा नगर के लिए भी प्रयुक्त होने लगा था । इस सम्बन्ध में डा० डी० सी० सरकार ने एक महत्त्वपूर्ण सूचना दी है। डा० सरकार ने 'लेखपद्धति' के 'निगमागमदान' के पारिभाषिक अर्थ होने की ओर ध्यान दिलाया है ।" इस सन्दर्भ में 'दान' का अर्थ है Toll or Tax- - चुंगी अथवा शुल्क तथा 'निगमानम' का अर्थ है – Importing and Exporting — प्रयत तथा निर्यात | इस पारिभाषिक व्याख्या द्वारा भी 'निगम' के व्यापार से सम्बद्ध होने का प्रमाण मिलता है ।
इस प्रकार अधिकांश भारतीय वाङ्मय के साक्ष्यों के आधार पर यह कहना सरल हो जाता है कि प्राचीन भारतीय शासन पद्धति एवं आर्थिक जनजीवन के सन्दर्भ में प्रयुक्त 'निगम' का आवासार्थक – नगर अथवा ग्राम अर्थ ही उपयुक्त है । जायसवाल आदि ऐतिहासिकों के द्वारा कल्पित निगम के 'Corporation' अथवा 'Corporate Body of Merchants' आदि अर्थ कृत्रिम एवं प्रमाण - विरुद्ध होने के कारण सुग्राह्य नहीं हैं ।
१. 'The Word dana has been used in the sense of 'a toll or tax' in passages like nigamagamadāna-'tax for importing and exporting', occurs in the 'Lekhapaddhati'.’
—Sircar, D.C., Society and Administration of Ancient and Medieval India, Vol. I, Culture, 1967, p. 94