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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
जैन मन्दिरों की धार्मिक लोकप्रियता
मन्दिरों का निर्माण करना जैन समाज की एक विशेष धार्मिक प्रवृत्ति रही है । भारतवर्ष में अाज असंख्य जैन मन्दिर अपनी सुन्दरता तथा स्थापत्यकला की दृष्टि से बहुत प्रसिद्ध हैं । वास्तव में धार्मिक प्रचार में मन्दिरों की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है । जटासिंह नन्दि ने अपने महाकाव्य में जैन मन्दिरों के निर्माण को धर्मप्रचार एवं धर्मलाभ से जोड़ा है। उनका कहना है कि अल्प धनव्यय से बनाए गए जिनालयों से भी महान् धर्म-प्राप्ति होती है ।' मन्दिरों द्वारा सामूहिक रूप से जनसाधारण में भी धार्मिक प्रवृत्ति का उदय होता है। इस धार्मिक मनोविज्ञान को स्पष्ट करते हुए वराङ्गचरितकार की मान्यता है कि सांसारिक विषय भोगों में प्रत्यासक्त व्यक्ति भी जिन मन्दिर रूपी सीढ़ियों में चढ़कर स्वर्ग के द्वार तक पहुंच जाते हैं। प्रतएव राजा को चाहिए कि वह अपने प्रजा की हितकामना के लिए समृद्ध मन्दिरों का निर्माण करवाए । २ राजा लोग अपने परिवार के सदस्यों के धर्मलाभ के लिए भी मन्दिरों का निर्माण करवाते थे। वराङ्गचरित में ही उल्लेख आता है कि राजा धर्मसेन ने पूजा करने के उद्देश्य से अपनी पुत्रवधुनों के लिए एक मास के भीतर ही जिनालय का निर्माण करवा दिया। इसी प्रकार राजा वराङ्ग ने भी अपनी महारानी के धर्माचरर की इच्छा को जानकर एक विशाल इन्द्रकूट नामक मन्दिर का निर्माण करवाया। उधर चालुक्य महामात्य वस्तुपाल द्वारा निर्मित जैन मन्दिरों में से कुछ ऐसे मन्दिर भी थे जिनका निर्माण केवल मात्र राजपरिवार के सदस्यों के धर्मलाभ प्राप्त करने के निमित्त से हुआ था ।५ धर्मार्थ प्राप्त धन-सम्पत्ति को मन्दिर निर्माण आदि धार्मिक
१. अल्पश्रमेणाल्पपरिव्ययेन जिनालयं यः कुरुतेऽति भक्त्या । महाधनोऽत्यर्थमुखी च लोके गम्यश्च पूज्यो नृसुरासुराणाम् ।।
-वराङ्ग०, २२.४७ २. योऽकारयेद्वेश्म जिनेश्वराणां धर्मध्वजं पूततम पृथिव्याम् ।
उन्मार्गयातानबुधान्वराकान्सन्मार्गसंस्थांरतु क्षणात्करोति ।। येनोत्तमद्धि जिनदेवगेहं संस्थापितं भक्तिमता नरेण । तेनात्र सा निःश्रयणी धरण्यां स्वर्गाधिरोहाय कृता प्रजानाम् ।।
-वही, २२.५०,५१ ३. वही, १५.१३६-३७ ४. वही, २२.५४ ५. सुकृत०, ११.२२, तथा वस्तु०, ६.६५६-५८