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धार्मिक जन-जीवन एवं दार्शनिक मान्यताएं
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आयोजन करते हैं।' वराङ्गचरित में इस अवसर पर जिनालय निर्माण, उनकी साज सज्जा, दान-भक्ति, दिक्पालपूजा, कलशयात्रा, जलयात्रा, अभिषेक-क्रिया आदि धार्मिक कृत्य विस्तार से वरिणत हैं।
३. महामह-मण्डलेश्वरादि राजा द्वारा जिनेन्द्र की जो विशेष पूजा की जाती थी उसे 'महामह' कहा जाता था।४ चन्द्रप्रभचरित में निर्दिष्ट 'परमपर्व' का इसी 'महामह' से सम्बन्ध रहा होगा। इसमें 'नन्दीश्वर पूजा' का भी स्पष्ट उल्लेख पाया है ।६ पं० पाशाधर 'महामह' को 'अष्टाह्निक पर्व' से कुछ विशिष्ट मानते हैं तथा 'सर्वतोभद्र' 'चतुर्मुख' इसकी अपर संज्ञाएं प्रतिपादित करते हैं। 'नन्दीश्वर', 'अष्टाह्निक पर्व', 'महामह' आदि कुछ दृष्टियों से पृथक्-पृथक् रहे होंगे किन्तु इनका महोत्सवीय स्वरूप परस्पर समान है । कभी-कभी इन पवों को 'जिन मह का भेद भी मान लिया जाता है ।
४. इन्द्रध्वज प्रह-नन्दीश्वर पर्व की भांति प्रतिवर्ष प्राषाढ़ या कार्तिक तथा फाल्गुन मासों के शुक्ल पक्ष की अष्टमी से आठ दिन पर्यन्त इन्द्र, प्रतीन्द्र, सामानिकादिक देवों द्वारा की जाने वाली पूजा 'इन्द्रध्वजमह' के नाम से प्रसिद्ध है । यदि इसी पर्व को भव्य-जीव सम्पादित करें तो इसे 'अष्टाह्निक' कहा जाता है। पं० आशाधर ने अनुष्ठान कर्ता के भेद से 'अष्टाह्निक' एवं 'इन्द्रध्वज' में भेद स्वीकार किया है ।
५. सांवत्सर पर्व १-चैत्र मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी को यह उत्सव मनाया जाता था। अर्बुदाचल पर्वत पर आयोजित होने वाले इस महोत्सव के अवसर पर तीर्थंकर ऋषभनाथ की स्तुति विशेष रूप से की जाती थी।'२
१. वराङ्ग० २२.२६-३७ २. वही, सर्ग २२-२३ ३. वराङ्ग० १५.१४०, चन्द्र०, ३.६० ४. धर्मामृत (सागार), ११.२७ ५. नान्दीश्वरं परमपर्व समाससाद । -च द्र० ३.६० ६. वही, ३.६० ७. धर्मामृत (सागार), ११.२७ ८. वराङ्गचरित, खुशाल चन्द्र गोरावाला, पृ० ३५१ ६. द्वया० ३.१०५ १०. कैलाशचन्द्र, शास्त्री, जैन धर्म. १० ३२२ ११. द्वथा० १६.५०, तथा द्रष्टव्य, कैलाशचन्द्र शास्त्री, जैन धर्म, पृ० ३३१ १२. द्वया०, १६.५० पर अभयतिलक टीका, पृ० २६५