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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज कालविभाजन एवं युगचक्र
सूक्ष्म दृष्टि से काल का प्रत्येक क्षण एक दूसरे से भिन्न है किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से इसे विभाजित भी किया जाता है । इसके परिवर्तन में शलाकापुरुषों की महत्त्वपूर्ण भूमिका मानी गई है ।२ कालविभाजन की जैन मान्यता के अनुसार न गिने जा सकने योग्य काल को 'पावलिका' संज्ञा दी गई है। गणनातीत (असंख्यात) प्रावलिकाओं के बीत जाने पर एक 'शब्द' होता है। कुछ प्राचार्यों के अनुसार सात प्रावलिकानों के बीत जाने पर एक 'स्तोक' होता है। सात 'स्तोक' के बीत जाने पर एक एक 'लव' होता है । ३८ 'लवों' से कुछ अधिक प्रमाण वाला 'मुहूर्त' कहलाता है। एक 'मुहूर्त' में दो नाड़ियाँ तथा ३० 'मुहूर्तों' का एक दिनरात होता है । पन्द्रह दिन-रातों का एक 'पक्ष' होता है तथा दो पक्षों' से एक 'मास' बनता है ।५ दो मास की एक 'ऋतु' होती है। तीन ऋतुओं से एक 'प्रायन' बनता है । 'उत्तरायण' तथा 'दक्षिणायन' से एक 'वर्ष' बनता है। जैन मनीषियों ने सम्पूर्णकाल को दो भागों में विभक्त किया है- 'उत्सर्पिणी' तथा 'अवसर्पिणी' जो अनादि और अनन्त कहे गए हैं। इनका चक्र उसी विधि से पूरा होता है जैसे चान्द्र मास में 'शुक्ल' तथा 'कृष्ण' पक्ष का चक्र । प्रत्येक 'अवसर्पिणी' तथा 'उत्सर्पिणी' काल को क्रमश: छह निम्नलिखित उपकालों में विभाजित किया किया जाता है
(क) अवपिरणीकाल-१. सुषमा-सुषमा, २. सुषमा, ३. सुषमा-दुःषमा, ४. दुःषमा-सुषमा, ५. दुःषमा तथा ६. दुःषमा-दुःषमा (अति दुःषमा)
१. कालं पुनर्योगविभागमेति निगद्यतेऽसौ समयो विधिज्ञः।
-वराङ्ग०, २७.३ २. कालायुषी क्षेत्रमतो जिनांश्च जिनान्तरं चक्रभृतस्तथैव । -वही, २७.२ ३. वही, २७.३-४ ४. खुशाल चन्द्र गोरावाला, वराङ्गचरित पृ० २५७ ५. एको मुहूर्तः खलु नाडिके द्वौ त्रिंशन् मुहूर्ता दिनरात्रिरेका । त्रिपञ्चकैस्त दिवसैश्च पक्ष: पक्षद्वयं मासमुदाहरन्ति ।।
-वही, २७.५ ६. वही, २७.६ ७. उत्सर्पिणी वाप्यवसपिणी च अनाद्यनन्ताविह यौ च कालो ।।
-वही, २७.२७ ८. तो भारत रावतयोः प्रदिष्टौ पक्षी यथैवात्र हि शुक्लकृष्णौ ।।
-वही, २७.२७