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धार्मिक जन-जीवन एवं दार्शनिक मान्यताएं
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'देवत्व' का लक्षण है। देवताओं की इन विलासपूर्ण चेष्टानों के सम्पादन में देवियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है । 'शास्त्रसार समुच्चय' की कन्नड टीका में स्वर्गस्थ देव-देवाङ्गनाओं से विशेष महिमा-मण्डित निरूपित हुए हैं। ये देव, देवाङ्गनामों के बिम्बाधरों का रसपान करते हुए, उनके अनुपम सौन्दर्य को निहारते हुएं, नूपुर
की सुमधुर झंकार का श्रवण करते हुए, मुख की सुगन्ध लेते हुए, कुच प्रदेश का ' स्पर्श करते हुए तथा अन्य इन्द्रिय जन्य सुख को भोगते हुए स्वर्ग में आनेन्द मनाते हैं। भवनवासी देव अपनी देवियों के साथ जलक्रीड़ा, स्थलक्रीड़ा, शयनक्रीड़ा दोलाक्रीड़ा तथा वाहनक्रीड़ा करते हुए निरूपित किए गए हैं । २ भवनवासी ईशान कल्प तक रहने वाली देवियां काय-प्रविचार युक्त मानी गई हैं' अर्थात् मनुष्य के समान अनुभव करने से वे तप्त हो जाती हैं। सानत्कुमार महेन्द्र कल्प के देव देवियों के स्पर्श मात्र से ही तृप्त हो जाते हैं । इससे ऊपर के चार कल्पों के देव देवियों के रूप का अवलोकन मात्र करने से तृप्त होते हैं। उनके शृङ्गार, रूपलावण्य, हाव-भाव आदि ही देवों को सन्तुष्टि के लिए पर्याप्त माने जाते हैं ।
- जैन महाकाव्य वराङ्गचरित में उपर्युक्त जैन देवियों का देवशास्त्रीन चरित्र चित्रित हुआ है । उन्हें अत्यन्त सुन्दर तथा विलासपूर्ण चेष्टाओं से युक्त माना गया है । अपनी अनुपम सुन्दरता तथा बहुमुखी प्रतिभा से वे देवों को आकर्षित करती प्रतिपादित की गई हैं। प्रायः ये देवियां पत्नी की मर्यादामों का पालन करती हुई अपने देव पतियों के आज्ञानुकूल व्यवहार करती हैं ।५ अपरिमित सौन्दर्य और लावण्य की स्वामिनी स्वर्गीय देवियां अपनी शारीरिक रचना, वेशभूषा, हावभाव, प्रेमप्रदर्शन, से विलक्षण एवं कल्पनातीत रूप से वरिणत हैं ।
१. शास्त्रसार समुच्चय, (कन्नड टोका), हिन्दी टीकाकार प्राचार्य श्री देशभूषण
पृ० १०७ २. वही, पृ० १४६ ३. वही, पृ० १४६ ४. सुराङ्गना वैक्रियचारुवेषा: सुविभ्रमाः सर्वकलाप्रगल्भाः । विशिष्टनानाद्धिगुणोपपन्ना गुणैरनेकै रमयन्ति देवान् ।।
-वराङ्ग०, ६.५२ ५. स्वनाथकायानुविकाररूपाः स्वनाथभावप्रियचारुवाक्याः । .: स्वनाथदृष्टिक्षमचारुवेषाः स्वनाथसच्छासनसक्तचित्ताः ।।
. . . -वही, ६.५३ ६. वही, ६.५४