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धार्मिक जन-जीवन एवं दार्शनिक मान्यताएं
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१. जैन धर्म : समाजोन्मुखी मूल्य एवं परम्पराएं
जैन संस्कृत महाकाव्यों का युग एक ऐसा संक्रान्ति युग था जिसमें धार्मिक और दार्शनिक मूल्यों को नवीन दिशा दी जा रही थी । रविषेण, जिनसेन, सोमदेव आदि जैनाचार्य एक नए सिरे से जैन धर्म की आचार संहिता को वैचारिक प्राधार दे रहे थे तो दूसरी ओर जटासिंह नन्दि जैसे प्राचार्य भी थे जो ब्राह्मण संस्कृति की समग्र व्यवस्था पर ही चोट करने में लगे हुए थे । सर्वविदित है कि जाति व्यवस्था, वैदिक कर्मकाण्ड और उनमें होने वाली हिंसा श्रादि के विरुद्ध भगवान् महावीर ने एक वैचारिक आन्दोलन चलाया जिसके परिणाम स्वरूप वैदिक संस्कृति की लोकप्रियता को भारी प्राघात पहुंचा । परन्तु भगवान् महावीर निर्वाण के एक हजार वर्षों वाद जैन धर्म की अपनी संघीय स्थिति विघटित हो चुकी थी और साथ ही हिन्दु धर्म में भी भागवत धर्म के उदय से बलिप्रधान यज्ञों का स्थान अब फल- पुष्प-तोय की पूजा पद्धति ने ले लिया था । ब्राह्मण धर्म और जैन धर्म के बीच इस अवधि में इतना आदान-प्रदान हो चुका था कि दोनों धर्मों के युगाचार्यों को नए धार्मिक मूल्यों को अपनाने की आवश्यकता का अनुभव हुआ । इससे ब्राह्मण संस्कृति तथा जैन संस्कृति के मध्य पारस्परिक कटुता में पर्याप्त कमी श्राई । वैदिक संस्कृति ने अहिंसा के मूल्य को प्रङ्गीकार किया तो जैन संस्कृति ने भी वैदिक संस्कृति की अनेक समाजशास्त्रीय एवं देवशास्त्रीय आस्थाओं को अपनी धार्मिक मान्यता प्रदान कर दी । परन्तु इसके साथ ही जैन धर्म जहाँ राजनैतिक संरक्षरण में अपनी लोकप्रियता की ऊंचाइयों को छू रहा था वहाँ जटासिंह नन्दि जैसे दार्शनिक प्राचार्य ब्राह्मण संस्कृति की कटु आलोचना में विशेष रुचि भी ले रहे थे ।
ब्राह्मण व्यवस्था के सैद्धान्तिक विरोध का समाजशास्त्र
जटासिंह के समय में कर्नाटक में जैन धर्म अपने उत्कर्ष पर था और वहाँ ब्राह्मण संस्कृति का कट्टर विरोध भी किया जाता था। सातवीं प्राठवीं शताब्दी ई० में कर्नाटक जैनधर्म की गतिविधियों का विशेष केन्द्र बना हुआ था । जटासिंह नन्दि के वराङ्गचरित महाकाव्य में कर्नाटक के जैन-वैभव का विलक्षण चित्रण हुना है । यह स्वाभाविक ही है कि जटासिंह नन्दि के सामने ब्राह्मण संस्कृति के मूल्यों के साथ समझौता करने की कोई समाजशास्त्रीय परिस्थितियां नहीं थीं । जैन धर्म की इसी राजनैतिक प्रभुता से प्रेरणा पाकर उन्होंने वर्ण-व्यवस्था, जाति-व्यवस्था, वेद- प्रामाण्य, पुरोहितवाद, वैदिक कर्मकाण्ड, देवोपासना आदि की प्रन्धरूढ़ियों का उपहास उड़ाते हुए ब्राह्मणवाद के अनुयायियों के समक्ष अनेक तार्किक चुनौतियाँ प्रस्तुत की । यद्यपि हम यह भी देख सकते हैं कि स्वयं जैन संस्कृति द्वारा ही सिद्धान्ततः वैदिक संस्कृति की परम्पराम्रों को स्वीकार करना पड़ा और भागवत