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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
होता है कि जैनाचार्य जैन धर्म को एक ऐसा उदार एवं लोकप्रिय धर्म बनाना चाहते थे जिससे ब्राह्मण संस्कृति के अनुयायी भी आकर्षित हो पाएं तथा जैन समाज के मौलिक तत्त्वों में भी किसी प्रकार का विरोध न पाए।' सर्वप्रथम जैनाचार्यों ने 'प्राकृत' की ओर से अपना ध्यान हटाकर 'संस्कृत' को सम्पर्क भाषा के रूप में
चुना। पूर्ववर्ती जैन साहित्य का लगभग सम्पूर्ण अंश प्राकृत में ही उपलब्ध होता है किन्तु रविषेण के 'पद्मचरित' की रचना के बाद अधिकांश धार्मिक, दार्शनिक तथा साहित्यिक ग्रन्थ संस्कृत में ही लिखे जाने लगे ।२ भाषा सम्बन्धी यह उदारता जैन धर्म की लोकप्रियता का एक बहुत बड़ा कारण बनी। इतना ही नहीं जैनाचार्यों ने ब्राह्मण संस्कृति में प्रचलित अनेक धार्मिक तथा सामाजिक व्यवस्था के साथ भी अनेक प्रकार के समझौते किए। वर्णव्यवस्था, पूजा-पद्धति, वेदप्रामाण्य आदि, ब्राह्मण-संस्कृतिजन्य मूल्यों पर अब नए ढङ्ग से सोचा जाने लगा था और उन्हें उदारता से स्वीकार भी कर लिया गया था। संभवतः जैन दार्शनिकों द्वारा तर्कशास्त्र के क्षेत्र में 'अनेकान्तवाद' की जो नवीन अवतारण हुई उसी की अनुप्रेरणा से हवीं-१०वीं शताब्दी के जैन युगचिन्तकों ने जैन धर्म को सामाजिक दृष्टि से लोकप्रिय बनाने में विशेष रुचि ली।
प्रारम्भिकावस्था में वर्ण-व्यवस्था का जैन धर्म सिद्धान्तत: विरोध करता था किन्तु वर्ण-व्यवस्था की सामाजिक लोकप्रियता को देखते हुए नवीं शताब्दी में प्राचार्य जिनसेन ने इसका जैनीकरण कर दिया। फलतः बदली हुई परिस्थितियों में वर्ण-व्यवस्था जैसी सामाजिक व्यवस्था का जैन लोग विरोध भी नहीं कर सकते थे। यही कारण था कि दसवीं शताब्दी में यशस्तिलककार को विवश होकर जैनानुमोदित वर्णव्यवस्था की तथा श्रुति-स्मृतियों को प्रमाण मानने आदि को संशोधित मान्यतामों को स्वीकार करना पड़ा था ।६ दूसरे शब्दों में धर्म की सामाजिक प्रासङ्गिकता की दृष्टि से जैनाचार्यों द्वारा किए गए इस प्रकार के परिवर्तन एवं संशोधन जैन धर्म की लोकप्रियता के लिए प्रभावशाली उपाय
१. गोकुल चन्द्र जैन, यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन, अमृतसर, १९६७.
पृ० ५६-६० २. देवेन्द्र मुनि, साहित्य और संस्कृति, वाराणसी, १९७०, पृ० ५७ ३. दलसुख मालवरिणपा, जैन दार्शनिक साहित्य के विकास की रूपरेखा,
बनारस, १६५२, पृ० ५ ४. वराङ्ग०, १.५१ ५. महापुराण, १६.३४३-४६, ऋग्वेद १०.६०.१२ ६. गोकुल चन्द्र जैन, यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन, प०७१-७२