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षष्ठ अध्याय धार्मिक जन-जीवन एवं दार्शनिक
मान्यताएं
__(क) धार्मिक जन-जीवन 'धर्म' को सामाजिक अनुप्रेरणा
सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से 'धर्म' का नियन्त्रण एक प्रभावशाली नियंत्रण स्वीकार किया जाता है। प्रायः जिन सिद्धान्तों का हम दैनिक जीवन में पालन करते हैं तथा जिनसे सामाजिक सम्बन्ध स्थापित हो पाते हैं उन्हें 'धर्म' की संज्ञा दी गई हैं ।' पाश्चात्य 'Religion' शब्द की निरुक्ति परक व्याख्या से भी यह ज्ञात होता है कि मानवीय एवं देवी स्तर पर भावनात्मक सम्बन्ध को सुदृढ़ करने में 'धर्म' की विशेष भूमिका होती है। भारतीय संस्कृति में 'धर्म' को जागतिक धारण शक्ति के रूप में भी पारिभाषित किया गया है । समाजशास्त्रीय पृष्ठभूमि में यदि 'धर्म' के स्वरूप का अवलोकन किया जाए तो ज्ञात होता है कि यद्यपि इसकी परिभाषाएं समय के अनुसार बदलती रही हैं तथापि सभी समाजशास्त्री 'धर्म' को सामाजिक नियंत्रण का एक प्रभावशाली माध्यम स्वीकार करते आए हैं। इस नियंत्रण में किसी राजा आदि का भय न होकर ईश्वरीय भय विद्यमान रहता है । धर्म के द्वारा ही सामाजिक प्रवृत्तियों का प्रोत्साहन, शिक्षा का प्रचार, चिकित्सा तथा सेवा, दान तथा त्याग की भावना, सहिष्णुता-भाव, अहिंसा एवं विश्व-बन्धुत्व
१. 'The principles which we have to observe in our daily life and
social relations are constituted by what is called 'dharma'.
-Radhakrishnan, S. Religions & Society, p. 104 'Religion' is a European word and it came from the root, 'big' to bind, so that 'religio' meant a 'relationship i.e. a com. munication between the human and the superhuman'.
-Bonquet, A.C. Comparative Religion, 1951, p. 15. ३. दयानन्दभार्गव, 'धर्म शब्द का अर्थ' (निबन्ध) दार्शनिक त्रैमासिक कानपुर,
जनवरी १९६६, पृ० ३३ ४. Roucek, Social Control, p. 101