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प्रावास-व्यवस्था, खान-पान तथा वेश-भूषा
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इतना अनुमान लगाया जा सकता है कि उत्पादित फसल के वितरण केन्द्र' (Distributing Centre) होने के कारण ही इन्हें 'भक्तग्राम' की संज्ञा दे दी गई होगी। ग्रामों के जन-जीवन सम्बन्धी विशेषताओं में 'कृषि-जीवन' प्रमुख रहा था ।' कृषि से सम्बन्धित विविध प्रकार की ग्रामीण गतिविधियों के अनेक उल्लेख प्राप्त होते हैं। प्रायः ग्राम बहुत समीप होते थे। ग्रामों में यातायात के साधनों में बैलगाड़ी (गन्त्री) आदि अनाज ढोने के महत्त्वपूर्ण साधन रहे थे। जैन संस्कृत महाकाव्यों में इस तथ्य का उल्लेख आया है कि आर्थिक समृद्धि होने पर 'वज' (पशु-पालन करने वाले लोगों के ग्राम) ग्राम-सदृश, ग्राम नगर-सदृश बन सकते थे ।५ महाकाव्यों में प्रतिपादित ग्राम, आर्थिक उत्पादन के एकमात्र साधन रहे थे।६ सम्पूर्ण नगरों तथा राज्य आदि की आर्थिक स्थिति इन्हीं पर अवलम्बित रही थी। आठवीं शताब्दी के महाकाव्य वराङ्गचरित में ग्रामों के उपभोग वैशिष्ट्य को राजा की महानता तथा प्रभुता का प्रतीक माना गया है। इसी प्रकार राज्य के सन्दर्भ में 'ग्राम' एक सम्पत्ति के रूप में निर्दिष्ट हैं ।
२. नगर
विभिन्न आगम ग्रन्थों की टीकानों से सिद्ध होता है कि 'पुर' अथवा 'नगर'
१. अकृष्टपच्यान्यनवग्रहाणि क्षेत्रैश्च सस्यानि सदा वद्भिः । -वर्ध०, १.६ २. जनैः प्रतिग्रामसमीपमुच्चैः कृता वृषाढ्यर्वरधान्यकूटाः । -धर्म०, १.४८ ३. परस्परं ग्रामसहस्रदर्शिनो निपेतुरभ्यर्णतया हि कुक्कुटाः ।-वराङ्ग०, २१.४४
ग्रामैः कुक्कुटकसंपात्यैः । -चन्द्र० २.११८
जनैः प्रतिग्रामसमीपमुच्चैः । -धर्म० १.४८ ४. निगमैर्वहदिक्षुयन्त्रगन्त्रीचयचीत्कारविभिन्नकर्ण रन्ध्रः। -वर्ध०, ४.४ ५. व्रजास्तु ते ग्रामसमानतां गताः पुरोपमा ग्रामवरास्तदाभवन् ।
-वराङ्ग०, २१.४७ ६. द्रष्टव्य, प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० १६४-६६ ७. वही, पृ० १९७-२०१ ८. नाथोऽयमस्माकमसौ क्षितीशो भुनक्त्ययं ग्रामसहस्रमेकम् । -वराङ्ग०, ८.५० ६. वराङ्ग०, १.३३ तथा तु०-अभ्यन्तरस्य नगरस्य बहिप्रदेशः । वही,
१.३४, पुराकरग्राममडम्ब० । -वही, ३.४, -चन्द्र०, १.२१, तथा तु०राष्ट्र नगरग्रामनिरन्तरं प्रविष्ट: । चन्द्र०, ६.३८, प्रद्युम्न०, १२२, तस्मिन् ग्रामपुरं वधूनां, जयन्त०, १.३५, कीति०, १.४८, वसन्त०, ४.१७