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पावास-व्यवस्था, खान-पान तथा वेश-भूषा
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संज्ञा प्राप्त कर सकते हैं। तुलनीय-नगराधिकारी-नागरक,' ग्रामाधिकारीग्रामिकरे आदि ।
२. अष्टाध्यायी-महाभारत तथा अर्थशास्त्र-पाणिनि की अष्टाध्यायी में कुल छः स्थानों पर 'निगम' के उल्लेख आए हैं। ऋगयनादि-गणपाठ में पठित होने के कारण ऐसा प्रतीत होता है कि इसका अर्थ वेदविद्या भी रहा हो। इनमें से पांच स्थानों पर 'निगमे' वेदार्थक है तथा केवल एक स्थान पर 'गोचरसंचरवहव्रजव्यजापणानिममाश्च' (अष्टा० ३.३.११९) में आए 'निगमाः' यद्यपि व्याख्याकारों के अनुसार वेदार्थक ही है,५ किन्तु गोचर (गौनों के चरने का स्थान) संचर (मार्ग) वहः (मार्ग) व्रजः (गोनों का बाड़ा) व्यजः (पंखा) आपणः (दुकान) आदि ग्राम-सभ्यता के वाचक शब्दों के सन्दर्भ में पठित 'निगमाः' का अर्थ वेद की अपेक्षा मार्ग अथवा ग्रामादि अर्थ अधिक सन्दर्भानुकूल जान पड़ता है। अष्टाध्यायी के व्याख्याकार या तो 'निगमाः' को वेदार्थक (छन्द) मानते हैं अथवा मौन रहते हैं ।
पाणिनिकालीन भारतवर्ष में प्राचीन भारतीय आर्थिक जीवन पर प्रकाश डालते हुए वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार 'निगम' 'व्यापारिक सङ्गठन' का
१. समाहत वन्नागरको नगरं चिन्तयेत् । -अर्थशास्त्र, २.३६ २. ग्रामेयान् ग्रामदोषांश्च ग्रामिकः प्रतिभावयेत् ॥ -महाभारत, शान्तिपर्व,
८७.३; तथा तु०–महानगर (पुर) का अाधुनिक सर्वोच्चाधिकारी-'महापौर'। ३. साढ्य साढ्वा साढेति निगमे (६.३.११२) वाषपूर्वकस्य निगमे (६.४.६)
बभूथाततन्थजगृम्भववर्थेति निगमे (७.२.६४) मोनातेनिगमे (७.३.८१) ससूवेति निगमे (७.४.७४) तथा गोचरसंचरवहव्रजव्यजापणनिगमाश्च
(३ ३.११६)-अष्टाध्यायी । ४. ऋगयनादयः-ऋगयन, पद, व्याख्यान, छन्दोमान, छन्दोभाषा, छन्दोविचिति, न्याय, पुनरुक्त, निरुक्त, व्याकरण, निगम, वास्तुविद्या, छविद्या,
-पाणिनीय शब्दकोष, ३२.१०, पृ० ६७६ ५. गावश्चन्ति अस्मिन्निति गोचरो देशः । संचरन्त्ययेन संचरो मार्गः ।
वहन्त्यनेन वहः स्कन्धः व्रजः । व्यजस्तालवृन्तम् । आपणः पण्यस्थानम् । निगच्छन्त्यनेन निगमः छन्दः ।
-अष्टाध्यायी, ३.३.११६, पर सिद्धान्तकौमुदी टीका ६. वही