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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
द्योतक है।' अष्टाध्यायी से ही प्रमाणित न होने के कारण वासुदेवशरण अग्रवाल का यह कथन प्रमाणाभाव के कारण सुग्राह्य नहीं। ऐसा समझना चाहिए कि पाणिनि भारत के जिस भूभाग से परिचित थे वहाँ 'निगम' नामक नगरभेद का अधिक प्रचलन न रहा होगा। ऐसी ही स्थिति महाभारत तथा अर्थशास्त्र के साथ भी रही थी। अर्थशास्त्र में आवासभेद की 'स्थानीय', 'द्रोणमुख', 'खार्वटिक' तथा 'संग्रहण' आदि पारिभाषिक संज्ञामों का उल्लेख तो पाया है,२ किन्तु 'निगम' नामक नगर भेद से अर्थशास्त्र परिचित नहीं। वैसे महाभारत, अष्टाध्यायी तथा अर्थशास्त्र में निगमाभाव तथा रामायण एवं बौद्ध जातकादि ग्रन्थों में प्रयोगबाहुल्य के कारणों को जानकर कतिपय नवीन निष्कर्ष भी निकाले जा सकते हैं।
३. अभिलेख, मुद्राभिलेख तथा सिक्के (ईस्वी० पूर्व ४००-६०० ई० तक) पुरातत्वीय स्रोतों के आधार पर भी नगर अथवा ग्राम के अर्थ में 'निगम' के उल्लेख प्राप्त होते है । इस सम्बन्ध में प्राचीनतम उल्लेख इलाहाबाद के समीप भीटा नामक स्थान से प्राप्त मुद्राभिलेख में खुदे 'शाहिजितिये निगमश'3 को माना जाता है, जिसका समय ईस्वी पूर्व तृतीय अथवा चतुर्थ शती निश्चित है। सर जान मार्शल के मतानुसार यह मुद्राभिलेख 'शाहजिति' की 'निगमसभा' को मुद्रित करने की ओर संकेत करता है ।५ ईस्वी पूर्व तृतीय शताब्दी के एक अन्य ‘भट्टि'प्रोलुशिलालेख' में पाए 'नगमा' को यद्यपि बुहलर द्वारा श्रेणी के सदस्य के रूप में रूपान्तरित कर दिया गया है किन्तु डी० पार० भण्डारकर के मतानुसार 'नेगमा' संस्कृत-'नेगमाः' है तथा जिसका अर्थ है 'नागरिकों की सङ्गठित समिति' ।
१. 'प्राचीन भारत में आर्थिक जीवन को तीन मुख्य संस्थाएं थीं। शिल्पियों के
सङ्गठन को 'श्रेणि', व्यापारियों के सङ्गठन को निगम' और एक साथ माल लादकर वाणिज्य करने वाले व्यापारियों को 'सार्थवाह' कहते थे।'
-वासुदेवशरण अग्रवाल, पाणिनिकालीन भारतवर्ष, काशी, २०१२
वि० सं०, पृ० २३० २. अर्थशास्त्र,२.१ ३. Archeological Survey of India, Annual Report, 1911-12,
p. 31 ४. Majumdar, Corporate Life, p. 134 ५. A.S.I., Ann. Rep., 1911-12, p. 31 ६. Epigraphia Indica, Vol. II, p. 328 ७. वही, पृ० ३२८ ८. Bhandarkar, Carmichael Lectures, 1918, p. 170