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आवास-व्यवस्था, खान-पान तथा वेश-भूषा
२४६ नगरों के वास्तुशास्त्रीय चिह्न
१. परिखा–प्रायः नगर परिखा से आवेष्टित होते थे।' परिखाएं चौड़ी तथा गहरी होती थीं। इनमें जल भरा रहता था।' चन्द्रप्रभचरित के अनुसार परिखानों में हंसों आदि के तैरने का वर्णन भी पाया है ।४ इन परिखाओं की चौड़ाई इतनी होती थी कि इनमें स्त्रियां भी स्नान कर सकती थीं। परिखानों के तटों पर वृक्ष लगे होते थे।५
नगरों को परिखानों से आवेष्टित करने की परम्परा अर्थशास्त्र तथा महाभारत के काल में भी रही थी।६ राजधानी नगर को परिखा से प्रावेष्टित करना सुरक्षादि की दृष्टि से आवश्यक था। परिखामों के तीन भेद हैं (१) जलपरिखा (२) पङ्क-परिखा तथा (३) शुष्क-परिखा। परिखा-जल में घड़ियालों को छोड़ने के उल्लेख भी मिलते हैं। जैन महाकाव्यों में अधिकांश रूप से जल-परिखा के ही उल्लेख मिलते हैं।
२. गोपुर-गोपुर नगर का मुख्य द्वार कहलाता है । जैन संस्कृत महाकाव्यों के 'गोपुर' की दूसरी संज्ञा 'प्रतोली' भी प्रचलित थी।' युद्ध-प्रयाण के अवसर पर नगर के मुख्य द्वार- 'गोपुर' से राजा सहित सेना के निर्गमन का उल्लेख भी आया
१. आवेष्ट्य तत्पुखरं परिखाऽवतस्थे । -वराङ्ग०, १.३६
यत्परिखा प्रथीयसी । चन्द्र०, १.२२, -धर्म०, १.६२, जयन्त०, १४६ २. बभूव यस्मिन्परिखा ससुद्रवत् । -वराङ्ग०, २१.३३, धर्म०, १.५८, नेमि०,
३. परिखाम्बवीचयः । -द्विस०, १-१६, यदम्बुखातस्य तरङ्गपक्तिः ।
-वर्ध०, १.१६ ४. हंसावलिस्तस्य जहार चित्तं । -चन्द्र० ४.७२ ५. वही, २.१३३-३७ ६. उदय नारायण राय, प्राचीन भारत में नगर तथा नगर जीवन, पृ० २३६ ७. नेमिचन्द्र, प्रादि पुराण में प्रतिपादित भारत, पृ० २६२-६३
उदय नारायण राय, प्राचीन भारत में०, पृ० २४२-४३ ६. प्रासादकूटवलभीतटगोपुरैः । -वराङ्ग०, १.३७
गोपुरशृङ्गवर्तिनाम् । —द्विस०, ८.४६, चन्द्र०, १.२५, वर्ध०, ५.१० १०. प्रतोल्याः गोपुरस्य शिखरमग्रभागम् । -चन्द्र०, २.१२६
पर विद्वन्मनोवल्लभा टीका, पृ० ६५