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२४.
जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
होने लगी थी। राजनैतिक सामन्त-पद्धति से अनुप्रेरित मध्यकालीन भारतवर्ष की सामन्ती अर्थव्यवस्था को मध्यकालीन यूरोप की सामन्तशाही अर्थव्यवस्था के सन्दर्भ में भी देखा जा सकता है। अमेरिका की प्राचीन थोंगा प्रादि जन-जतियों में भूमि वितरण एवं भूमि-हस्तान्तरण की जो प्रक्रियाएं प्रचलित थीं। तदनुरूप ही मध्यकालीन भारतीय अर्थव्यवस्था भी अपने दिशा निर्माण में अग्रसर हो चुकी थी। जैन संस्कृत महाकाव्यों में स्पष्ट रूप से जिस आर्थिक समृद्धि का चित्रण हुआ है वह समग्र समाज का आर्थिक चित्रण न होकर सामन्त राजाओं तथा धनिक वर्ग से ही अधिक सम्बद्ध है।
मालोच्यकाल में कृषक तथा शिल्पी वर्ग आर्थिक उत्पादन की वृद्धि के लिए साधन की भांति प्रयोग में लाए जाते रहे थे । इन्हीं लोगों के कठोर परिश्रम का ही परिणाम माना जाना चाहिए कि आलोच्य काल का उपभोक्ता-वर्ग ऐश्वर्य सम्पन्न जीवन बिताने का आनन्द लूट रहा था। जैन संस्कृत महाकाव्यों के काल में धन-सम्पत्ति विषयक जो मान्यताएं प्रचलित थीं उनमें मुद्रा संचय की लालसा से कहीं अधिक विभिन्न प्रकार के उपभोगों को भोगने की मान्यताएं बलवती होती जा रही थीं। सामन्ती चरित्र की एक उल्लेखनीय विशेषता 'भूसम्पत्ति' के उपभोग से सम्प्रयुक्त रही है । पालोच्य काल में राजसत्ता 'वसुधा-उपभोग' के मूल्य से ही प्रधानतया केन्द्रित थी। इसी 'वसुधा-उपभोग' की प्रेरणा से राजाओं ने उत्पादन के मुख्य स्रोत ग्रामों को 'महत्तर' (महत्तम) कुटुम्बियों के माध्यम से नियन्त्रित कर रखा था। यही कारण था कि इस युग में 'स्त्री' तथा 'शिल्पी' एवं अन्य सेवक वर्ग राजा के सम्पत्ति उपभोग के साधनमात्र बन गए थे।
___ गुप्तकाल की अर्थव्यवस्था में भी ऐश्वर्य तथा भोग-विलास के मल्य अस्तित्व में आ गए थे किन्तु इनका उपभोग एक विशेष वर्ग तक एक निश्चित मात्रा में ही सीमित रहा था किन्तु मध्यकालीन भारतवर्ष में जितने अधिक से अधिक सामन्त राजा तथा उनके प्रशासकीय नियोजक बढते गए उतनी ही सीमा तक ऐश्वर्यपरक जीवन-यापन का स्तर भी बढ़ता गया। परिणामत: कृषि-शिल्पादि व्यवसाय करने वाले श्रमिक वर्गों को उत्पादन के अनुपात से समृद्धि का लाभांश नहीं मिल सका। स्वायत्त ग्राम-प्रशासन की विवशतामों के कारण 'ग्राम-मुखिया' आदि सामन्ती सत्ता के पोषक और सहायक बने हुए थे । प्रमुख उद्योग व्यवसायों के सन्दर्भ में यह उल्लेखनीय है कि जैन महाकाव्यों के स्रोत लगभग ५० व्यवसायों के अस्तित्व की सूचना देते हैं । कृषि उद्योग इस युग का एक प्रधान उद्योग था तथा समग्र अर्थव्यवस्था कृषि उत्पादन पर ही अवलम्बित थी। कृषि उद्योग के साथ पशुपालन, वृक्ष-उद्योग आदि की भी आर्थिक दृष्टि से विशेष भूमिका रही थी। ग्यापार सम्बन्धी जिन महत्त्वपूर्ण गतिविधियों की ओर जैन महाकाव्यों के वर्णन केन्द्रित हैं उनमें सार्थवाहों की व्यापारिक गतिविधियां विशेष रूप से विशद हुई हैं।