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अर्थव्यवस्था एवं उद्योग-व्यवसाय
३. अग्निजीविका — कोयला श्रादि तैयार करना ।
५. स्फोटजीविका - पटाखे आदि विस्फोटक पदार्थों को बनाना ।
५. भाटकजीविका - गाड़ी घोड़े आदि से बोझा ढुलवाना ।
६. यन्त्रपीडन - तेल निकालने के लिए कोल्हू चलाना तथा तिल प्रादि देकर तेल खरीदना ।
७. निर्लाञ्छन - बैल आदि पशुओं की नाक छेदने का कार्य करना ।
८. सतीपोष - हिंसक प्राणियों को पालना तथा किराए पर देने के लिए दास-दासियों का पालन पोषण करना ।
६. सरः शोष - अनाज बोने अथवा सिंचाई आदि करने के उद्देश्य से जलाशयों से नाली खोदकर पानी किालना ।
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करना ।
१०. ववप्रद - वन में घास आदि को जलाने का कार्य करना ।
११. विषवाणिज्य - विष का व्यापार करना ।
१२. लाक्षावाणिज्य - लाख का व्यापार करना । टङ्कण (टाखन-खार), मनसिल, गूग्गल, धाय के फूलों तथा त्वचा से मद्य बनाना भी लाक्षा वाणिज्य के अन्तर्गत आता है ।
१३. दन्तवाणिज्य - भीलों आदि से हाथी दांत खरीदकर व्यापार
करना ।
१४. केशवाणिज्य - दास-दासियों तथा पशुओं का व्यापार करना ।
१५. रसवाणिज्य -- मक्खन, शहद, चरबी, मद्य श्रादि का व्यापार
धर्मशर्माभ्युदय महाकाव्य में उपर्युक्त १५ व्यवसायों को जैन धर्म की दृष्टि से निषिद्ध माना गया है ।' सामान्यतया इन व्यवसायों का श्रार्थिक दृष्टि से विशेष महत्त्व रहा था परन्तु जैन समाज में इन्हें 'क्रूर' व्यापार के रूप में देखा जाता था । निष्कर्ष -
इस प्रकार प्रस्तुत अध्याय में जैन संस्कृत महाकाव्यों के श्राधार पर मध्यकालीन भारत की अर्थव्यवस्था सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण तथ्यों पर प्रकाश डाला गया है । इतिहासकारों ने आलोच्य काल को आर्थिक व्यवस्था की दृष्टि से पूर्णत: सामन्तवादी प्रवृत्तियों से जकड़ा हुआ माना है। जैन संस्कृत महाकाव्यों के स्रोत इस तथ्य की पुष्टि करते हैं तथा युगीन सामन्ती चरित्र के अनेक अनालोचित पक्षों पर भी महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं । ऐतिहासिक दृष्टि से जमींदारी प्रथा के उद्भव तथा विकास सम्बन्धी तथ्यों पर दृष्टि डाली जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि मध्यकालीन भारतवर्ष के भूमिदानों से इस प्रथा की पृष्ठभूमि विशेष रूप से सुदृढ़
१. धर्म०, २१.१४४-४६