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पञ्चम अध्याय
आवास-व्यवस्था, खान-पान
तथा वेश-भूषा
स-व्यवस्था
विविध प्रावासीय संस्थितियाँ
नगरों तथा ग्रामों में प्राकार सम्बन्धी भेद का मुख्य कारण भारत की भौगोलिक प्रकृति रही है । प्रायः वन-पर्वत-नदी से मिले हुए प्रदेश ग्रामों के रूप में विकसित होते हैं और एक निश्चित सीमा तक आर्थिक समृद्धि प्राप्त कर लेने के उपरान्त उन्हें नगरों के रूप में प्रसिद्धि मिल जाती है। इन्हीं भौगोलिक तथा आर्थिक परिधियों में नगरों तथा ग्रामों की विविध अवस्थाएं भी देखी गई हैं। नगर, पत्तन, पुटभेदन, ग्राम, कर्बट, मडम्व आदि नगरों तथा ग्रामों के विकास की ही क्रमिक इकाइयाँ कही जा सकती हैं । जैन पागम ग्रन्थों में प्रतिपादित विविध प्रकार की आवासीय संस्थितियों की इकाइयां इस प्रकार थीं
१. गाम (ग्राम) २. नगर ३. रायहाणि (राजधानी) ४. निगम ५. प्रागर (आकर) ६. पल्ली ७. खेड (खेट) ८. कब्बड (कर्वट) ६. दोणमुह (द्रोणमुख) १०. पट्टण (पत्तन) ११. मडम्ब १२. सम्बाह (सम्वाह) १३. प्रासम १४. पुटभेदन १५. सन्निवेश १६, घोस (घोष)' आदि ।
परवर्तीकाल में इनकी संख्या में न्यूनता पाती गई । मध्यकालीन भारत में लगभग एक दर्जन निवासार्थक इकाइयां प्रसिद्ध रही थीं। लगभग ८वीं शताब्दी ई० से लेकर १४वीं शती ई० तक के जैन संस्कृत महाकाव्यों में निम्नलिखित बारह प्रकार की आवासीय संस्थितियों का उल्लेख पाया है
१. उत्तराध्ययनसूत्र, ३०.१६, प्राचारांगसूत्र १.७.६, कल्पसूत्र, ७ ८६, प्रोप
पात्तिकसूत्र, ५३.६ .