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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
४६. वास्तु-शास्त्रीय-व्यवसाय --नगर, देवालय आदि का निर्माण करना एक महत्त्वपूर्ण व्यवसाय रहा था।'
५०. लकड़ी काटने का व्यवसाय-जङ्गल में जाकर लकड़ी आदि काटकर जीविकोपार्जन से सम्बन्धित व्यवसाय भी प्रचलित थे।
__ इन व्यवसायों के अतिरिक्त चोरी करना, डाका डालना तथा लूटमार करना भी व्यवसाय के रूप में प्रचलित हो चुका था । पन्द्रह प्रकार के निषिद्ध व्यवसाय
जैन पुराण ग्रन्थों की मान्यता के अनुसार जन-जीवन से सम्बन्धित व्यवसायों (सावद्य कर्मों) को 'असि' (सैन्य व्यवसाय), 'मसि' (लेखन सम्बन्धी व्यवसाय) 'कृषि' (खेती), 'विद्या' (गणित आदि विद्याओं से सम्बन्धित व्यवसाय), 'शिल्प' (तकनीकी व्यवसाय) तथा 'वाणिज्य' (व्यापार)-छः विभागों में विभक्त किया किया गया है।४ जैन शास्त्रों में १५ अतिचार निषिद्ध हैं। ये अतिचार खरकर्म भी कहलाते हैं ।५ इन खरकर्मों में जो १५ कर्म निषिद्ध हैं उनका भी व्यावसायिक दृष्टि से विशेष महत्व है। इन विविध प्रकार के अतिचार तथा सावध कर्मों को व्यवसाय की दृष्टि से इस प्रकार विभक्त किया जा सकता है ६ -
१. धनजीविका-छिन्न अथवा अछिन्न वृक्ष प्रादि वनस्पतियों को बेचना गेहूं आदि अनाज को कूट-पीस कर बेचना प्रादि ।
२. अनोजीविका-गाड़ी, रथ, तथा उसके चक्र आदि भागों को स्वयं बनाना अथवा दूसरों से बनवाना, गाड़ी जोतने का काम स्वयं करना अथवा दूसरों से करवाना, गाड़ी आदि को बेचना आदि ।
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१. वराङ्ग०, २१-३१ तथा २२.५६ २. धर्म०, २१.४५, पद्मा०, ४.१६३, द्वया०, २.४१ ३. द्रष्टव्य, प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० १०३-४ ४. असिमषिः कृषिविद्या वाणिज्यं शिल्पमेव च । कर्माणीमानि षोढा स्युः प्रजाजीवनहेतवः ॥
-आदि० १६.१७६ तथा कर्मास्त्रेिधा-सावद्यकर्माया, अल्पसावद्यकर्मार्या, असावध कर्माश्चेिति । सावद्यकर्यािः षोढा-असि-मसि-कृषि-विद्या-शिल्पवणिक्कर्मभेदात् ।
(राजवात्तिक, ३.३६. २.२००.३२), जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश,
भाग ४, पृ० ४२१ ५. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ४, पृ० ४२१ ६. विशेष द्रष्टव्य—वही, पृ० ४२२