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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज हेमचन्द्र के काल में चारों वेदों तथा चौदह विद्यास्थानों के अध्येता ब्राह्मण को हाथी में बैठाकर राज सम्मान दिए जाने का उल्लेख भी प्राप्त होता है।' (ख) क्षत्रिय तथा अन्य व्यवसाय
क्षत्रियों के सम्बन्ध में प्रसिद्ध हो चुका था कि ये लोग शूरवीर एवं शस्त्रशास्त्र में विशेष पारङ्गत होते हैं । शास्त्र से यहाँ अभिप्राय युद्ध सम्बन्धी शास्त्र से ही रहा था । वेद-पुराण आदि भी शास्त्र कहलाते हैं। इनके लिए ब्राह्मण प्रसिद्ध थे। पद्मानन्द काव्य में इसी भेद को स्पष्ट करने के लिए 'शास्त्रकजीविनो विप्राः क्षत्रिया: शस्त्रजीविनः'3 कहा गया है। हम्मीर महाकाव्य में वर्णित चाहमान वंश राजपूत जाति से ही सम्बद्ध था। क्षत्रिय युद्ध कौशल के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध हो चुके थे। राजस्थान आदि प्रदेशों की वीर राजपूत जातियाँ तो अपने प्राणों को देकर भी देश-रक्षा को महत्त्व देती थीं ।५ हम्मीर महाकाव्य में वर्णित युद्धवर्णन क्षत्रियों की वीरता को स्पष्ट कर देते हैं । चाहमान वंश की स्त्रियाँ भी वीरता के लिए प्रसिद्ध थीं। इस प्रकार कुछ क्षत्रिय वंशों ने युद्ध एवं सेना के क्षेत्र में अपना गौरव नहीं खोया था । हेमचन्द्र के समय में क्षत्रिय वर्ग प्रायः युद्ध सम्बन्धी शास्त्रों में विशेष दक्ष होता था । विभिन्न प्रकार के शस्त्रों-अस्त्रों के प्रयोग की शिक्षा देने का कार्य भी सम्भवतः क्षत्रिय आचार्य ही करते थे। विभिन्न प्रकार की युद्धकलानों में भी क्षत्रिय विशेष रूप से पारङ्गत होते हैं। क्षत्रिय ही मुख्यतया सैन्यव्यवसाय में जाते थे किन्तु यह परम्परा धीरे-धीरे टूट भी रही थी । सातवीं-आठवीं शताब्दी में पुलिन्द अर्थात् भीलों तथा वरिणकों की सेना के उल्लेख भी मिलते हैं । द्विसन्धान महाकाव्य के षड्विधबल' के सन्दर्भ में टीकाकार नेमिचन्द्र ने छ: प्रकार की सेना का उल्लेख किया है १०-(१) 'मौल'... वंश परम्परागत क्षत्रिय सेना । (२) "मृतक'-वेतनार्थ भरती की गई सेना, (३) 'श्रेणी' व्यापारियों आदि की सेना)। (४) 'पारण्य'-भील आदि जङ्गली जातियों की सेना, (५) 'दुर्ग'-दुर्गस्थ सेना
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१. परि०, १३.७-८ २. अहं तु क्षत्रियः शूरः शस्त्रशास्त्रविशारद: । -शत्रु०, १.१३६ ३. पद्मा०, ७.५३ ४. हम्मीरमहाकाव्य, भूमिका, पृ० २३ ५. हम्मीर०, १३.२०८ ६. वही, सर्ग-१३ ७. वही, १३.१८५ ८. चन्द्र० ४.५; त्रिषष्टि०, २.६.२३४-३७ ६. वराङ्ग०, १४.२३ १० द्विसन्धान०, २.११ पर तु० नेमिचन्द्रकृत पद कौमुदी टीका, पृ० २७