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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज महत्त्वपूर्ण स्थान रहा था।' 'चतुरङ्गिणी' सेना में आधी सेना घोड़ों तथा हाथियों से ही बनती थी। फलतः हाथी तथा घोड़ों के लक्षणों की परीक्षा करने के निमित्त 'गजशास्त्र' तथा 'अश्वशास्त्र' का तत्कालीन विद्याओं में विशेष स्थान बन गया जा । काम्बोज, वानायुज, वाह्लीक, पारसीक आदि जातियों के घोड़े युद्ध की दृष्टि से उत्कृष्ट समझे जाते थे। हाथियों के भद्र, मन्द्र, मृग प्रादि भेद प्रचलित थे।४ इस प्रकार युद्ध की दृष्टि से हाथी तथा घोड़े इस युग के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पशु थे। युद्ध प्रयाण के अवसर पर बैलों, खच्चरों तथा ऊंटों द्वारा सामान ढोने के उल्लेख भी प्राप्त होते हैं ।५ युद्धोपयोगी पशुओं की सुरक्षा तथा आवास-व्यवस्था पर विशेष ध्यान दिया जाता था। मुर्गापालन
गांवों में मुर्गा पालन व्यवसाय भी प्रचलित था। 'निगम' ग्रामों में मुर्गों की उछलकूद करने के उल्लेख भी प्राप्त होते हैं। एक गांव के मुर्गे दूसरे गांवों में पाते जाते रहते थे।' मुर्गों की लड़ाई जन-साधारण में मनोरञ्जन का विशेष माकर्षण रही थी। दण्डी के दशकुमारचरित में भी मुर्गों की लड़ाई का वर्णन पाया है ।१० इस प्रकार आलोच्य काल में ग्रामों में मुर्गा-पालन व्यवसाय एक महत्त्वपूर्ण व्यवसाय था । प्रायः इसे निम्न जाति के लोग करते थे।
वन्य पशुमों की ज्यावसायिक उपयोगिता
हिरण, सियार, सूअर, वृक, रूरुच, न्यहवीलक, सिंह, बाघ, चमरी मृग आदि
१. द्विस०, १४.३६-३८ तथा चन्द्र०, १३.२७-२६, १४.५७, ६०, ६३-६५, २. चन्द्र०, १५.५६ ३. काम्बोजवानायुजवालिकाः हयाः सपारसीकाः पथि चित्रचारिणः ।
-धर्म०, ६.५० ४. भद्राश्च मन्द्राश्च मगाश्च केऽपि ये । -धर्म०, ६.४६ ५. द्रष्टव्य-प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ. १५९-६० ६. वही, १६२-६३ ७. कुक्कुटान्मेषमार्जारान्नकुलाल्लावकाशुनः । -वराङ्ग०, ५.६६
परस्परं ग्रामसहस्रदर्शिनो निपेतुरभ्यर्णतया हि कुक्कुटाः । -वही, २१.४४ ८. कृकवात्कृत्पतनक्षमान्नृपः। -द्विस०, ४.४६ ६. वराङ्ग०, २१.४४ १०. दशकुमारचरित, २.५