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अर्थव्यवस्था एवं उद्योग-व्यवसाय
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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भी 'श्रेणि' की सत्ता को स्वीकार किया गया है तथा इनकी परम्परागत संख्या भी अठारह ही मानी गई है ।" जैन महाकाव्यों के काल में श्रेणियां अपने नियमों तथा संविधानों के अनुरूप सङ्गठित रही होंगी । 'क्योंकि 'श्रेणि' के साथ प्राय: 'गण' एवं 'प्रधान' प्रादि का व्यवहार हुआ है जो स्पष्ट रूप से इनके 'सङ्घठित' स्वरूप का द्योतक है । वराङ्गचरित में उल्लिखित 'श्रेणि' के सम्बन्ध में यह भी उल्लेखनीय है कि राजदरबार में भी विभिन्न प्रकार की श्रेणियों के प्रधानों का महत्त्वपूर्ण स्थान था । विशेष राजकीय उत्सवों के श्रवसरों पर ये 'श्रेणि-प्रधान' व्यवस्था सम्बन्धी कार्यों की देखभाल करते थे | 3 राज्याभिषेक के अवसर पर भी श्रेणि गणों के प्रधान ही सर्वप्रथम गन्ध तथा चन्दन जल से राजकुमार का पादाभिषेक करते थे । पद्मानन्द महाकाव्य में 'प्रश्रेणियों' का भी उल्लेख आया है । ५
जीविकोपार्जन सम्बन्धी तकनीकी व्यवसाय
जैन संस्कृत महाकाव्यों में उल्लिखित शिल्प व्यवसायियों तथा अन्य जीविकोपार्जन सम्बन्धी व्यवसायों की जानकारी इस प्रकार मिलती है
करने वाले और डलिया बनाने वाले १४. रङ्गरेज १५. चित्रकार १६. धर्मिक (धान्य के व्यापारी) १७. कृषक १८. मछुए १६. कसाई २०. नाई तथा मालिश करने वाले २१. मालाकार ( माली ) २२. नाविक २३. चरवाहे २४. सार्थं सहित व्यापारी २५. डाकू तथा लुटेरे २६. वन आरक्षी जो सार्थों की रक्षा करते थे तथा २७. महाजन ।
१. अष्टादशश्रेणिगरण प्रधानंरष्टादशान्येव दिनानि तत्र । कश्चिद्भटस्यावनिपात्मजायाश्चक्रे विभूति महतीं महद्भिः ॥
- वराङ्ग०, १६. २५;
अष्दादशश्रेणिगरणप्रधाना बहुप्रकारैर्मणिरत्नमिश्रः । गन्धोदककैश्चन्दनवारिभिश्च पादाभिषेकं प्रथमं प्रचक्रुः ।
३. वराङ्ग०, १६.२५
४. वही०, ११.६३
५. पद्मा०, १६.१९३
- वही०, ११.६३
तथाऽष्टदशभिः श्रेणिप्रश्रेणिभिरशोभत । - पद्मा०, १६.१९३
२. कारुस्तु कारी प्रकृतिः शिल्पी श्रेणिस्तुतद्गणः ।
- प्रभिधानचिन्तामणि कोश ३.८६६, सम्पादक विजयकस्तूर सूरि, मुम्बई, वि०स० २०१३, पृ० २०४