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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
प्रशंसा की गई है। व्यापारियों का शिष्ट व्यवहार होने के कारण तथा प्रत्येक वस्तु दुकानों में सुलभ होने के कारण ग्राहकों को नगर से बाहर जाने की आवश्यकता नहीं प्रतीत होती थी।' व्यापारी प्राय: विक्रेय वस्तुओं के प्रयोग के सम्बन्ध में भी पूछताछ कर लेते थे। कभी-कभी धार्मिक उद्देश्य से क्रय की जाने वाली बहुमूल्य वस्तु का भी वणिक् लोग मूल्य नहीं लेते थे। पद्मा० महाकाव्य में जैन मुनि के उपचारार्थ क्रय की जाने वाली एक-एक-लाख दीनार मूल्य वाली वस्तुओं का मूल्य स्वीकार नहीं किया गया। इस प्रकार नगरों के बाजारों में सौहार्दपूर्ण वातावरण होने का उल्लेख पाया है। जैन लेखकों ने बाजारों के माप तौल सम्बन्धी व्यापारियों की इमानदारी को विशेष सराहा है।" विक्रयार्थ फुटकर वस्तुएं
__ वराङ्गचरित तथा द्विसन्धान महाकाव्य में भी कहा गया है कि नगरों के . बाजारों में दुर्लभ से दुर्लभ वस्तु भी प्राप्य थी।५ उदाहरणार्थ धातुओं में सोना, फूलों में पराग, धन पदार्थों में वज्र, जलोत्पन्न वस्तुओं में मोती जैसी बहुमूल्य वस्तुएं भी क्रयार्थ उपलब्ध रहती थीं। इसी प्रकार एक स्थान पर विभिन्न प्रकार की लकड़ियों में देवदारु लकड़ी के भी उपलब्ध रहने का उल्लेख किया गया है।
बाजारों में विक्रय की जाने वाली वस्तुओं के अन्तर्गत बहुमूल्य हीरे, मोती रत्नों आदि के अन्तर्गत प्रवाल, मुक्ता, नील, कर्केतन, वज्र, गारुडमणि, वैडूर्य, महेन्द्रनीलमणि, चन्द्रकान्तमणि, पद्ममणि, शंख, सूक्ति आदि उल्लेखनीय हैं । धातुओं के अन्तर्गत, सोना, चांदी,तांबा, लोहा, शीशा विक्रयार्थ उपलब्ध रहता था।'
१. द्विस०, १.३५ २. पद्मा०, ६.५७ ३. विनाशि गृह्णामि धनं न मूल्ये, काङ्क्षामि किन्त्वक्षयमेव धर्मम् ।
-पद्मा० ६.६५ ४. प्रसिद्धनाविरुद्धेन मानेनाव्यभिचारिणा। वणिजस्तार्किकाश्चापि यत्र वस्तु प्रमीयते ।।
-चन्द्र०, २.१४२ ५. वरांग०, १.३६, तथा द्विस०, १.३४ ६. द्विस०, १.३४ ७. वही, १.३६ ८. द्विस०, १.३२, वराङ्ग०, ७.४-५, २२.६४-६५ ६. चन्द्र०, ७.८४, वर्ध०, १४.३०, द्विस०, १.३३