________________
દ્
जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
अरबों तथा तुर्कों की अश्वारोही सेना की अपेक्षा अल्पवेगगामी तथा सुस्त थी । ' भारतीयों की विजय का उत्तरदायित्व 'गजसेना' पर ही अधिक निर्भर था किन्तु 'गजसेना' कभी भी युद्ध में धोखा दे सकती थी । इसके अतिरिक्त भारतीय सेना सदा संरक्षणात्मक युद्ध ही अधिक लड़ते थे तथा आक्रमणात्मक कम । भारतीय युद्ध धर्म का पालन करते हुये शत्रु सेना के पृष्ठ भाग पर भी आक्रमण नहीं करते थे । 3 इतिहासकारों की यह भी मान्यता रही है कि धार्मिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों को लौकिक मूल्यों से अपेक्षाकृत अधिक महत्व देना भी भारतीय सेना के मनोबल वर्धन के लिए एक अभिशाप से कम नहीं था । मजूमदार महोदय ने जैन धर्म के 'अहिंसा परमोधर्मः' के सिद्धान्त को भी भारतीय सैन्य शक्ति की एक त्रुटि के रूप में स्वीकार किया है। 2 किन्तु केवल मात्र जैन धर्म श्रादि किसी धर्म विशेष को इसका उत्तरदायी मानना अनुचित जान पड़ता है। जैन संस्कृत महाकाव्यों से भलीभाँति सिद्ध हो जाता है कि जैन धर्मावलम्बी राजा श्रादि युद्ध करने या न करने के निर्णय करते समय धर्म को कभी बीच में नहीं लाए । युद्ध के प्रति अनेक प्रकार की जो उदासीनताएं दृष्टिगत होती हैं वे भी जैन धर्मानुप्राणित न होकर तत्कालीन समाज में प्रचलित आध्यात्मिक एवं राजनैतिक विचारों का ही समग्र परिणाम समझनी चाहिए । सोमेश्वरकृत कीर्तिकौमुदी में युद्ध के अवसर पर हुई हिंसा सिद्धान्त का जो प्रतिपादन हुआ है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन मतावलम्बी राजा युद्धों के अवसर पर अहिंसा को अधिक महत्त्व नहीं देते थे ।
प्राचीन भारतीय धार्मिक चेतना से युद्ध भावना की तुलना की जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय युद्ध में मृत्यु प्राप्त करने स्वर्ग की प्राप्ति मानते थे । ७ इस भावना से भारतीय सेना का मनोबल पर्याप्त ऊँचा रहा था तथा मौर्य एवं गुप्त साम्राज्य से लेकर मध्यकालीन युग तक भारतीय सैनिक युद्ध को अपना
९. मजूमदार, भारतीय सेना का इतिहास, पृ० २८६-८७
२ . वही, पृ० २८७
३. वही, पृ० २८७
४.
Majumdar, Bimal Kanti, The Military System in Ancient India, Calcuttn, 1960, p. 155-56
५. मजूमदार, भारतीय सेना का इतिहास, पृ० २८५ ६. कीर्ति ०, ५.३५-३७
७. तु० - हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् । तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय
कृतनिश्चयः ॥
- भगवद्गीता, २.३७