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श्रर्थव्यवस्था एवं उद्योग व्यवसाय
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इसी प्रकार यत्र-तत्र वेदों में ही दूसरे के धन का लालच न करने का उपदेश दिया गया है ।' 'कर्म' करते हुए सौ वर्ष तक जीवित रहने की धारणा भी प्रार्थिक दृष्टि से 'श्रम' के महत्त्व पर ही प्रकाश डालती है । ऋग्वेद आदि में उपलब्ध 'स्तेन' तथा 'तस्कर' श्रादि के उल्लेख यह सिद्ध कर देते हैं कि समाज में कुछ ऐसे तत्त्व भी अस्तित्व में आ चुके थे जो 'धन' की लालसा के कारण दूसरे व्यक्तियों के 'श्रम' से अजित वस्तु से 'उपभोग' करना चाहते थे | 3
प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारों के संस्थागत विकास की दृष्टि से अर्थशास्त्र, शुक्रनीतिसार, महाभारत का शान्तिपर्व, कामन्दक- नीतिसार श्रादि ग्रन्थों का विशेष महत्त्व रहा है ।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में 'श्रम' को पूंजी प्राप्ति का प्रमुख कारण माना गया है । इसी प्रकार शासनतन्त्रीय प्रार्थिक नीति-निर्धारण के सन्दर्भ में कौटिल्य ने राष्ट्र के सभी कार्य 'कोष' पर अवलम्बित मानते हुए इसके महत्त्व को मुक्तकण्ठ से स्वीकार किया है। महाभारत में ही 'वार्ता' अर्थात् कृषि, वाणिज्य तथा पशुपालन को आर्थिक उन्नति का मूल कारण स्वीकार किया गया है । ७
मनु ने ग्रामों को आर्थिक उत्पादन के मूल स्रोत के रूप में स्वीकार करते हुए 'राष्ट्र' सङ्गठन के अन्तर्गत 'ग्राम' सङ्गठन की आवश्यकता पर ही बल नहीं दिया अपितु इन ग्रामों में रक्षकों की नियुक्ति के महत्त्व को भी आवश्यक रूप से स्वीकार किया है |5 आर्थिक व्यवस्था की दृष्टि से 'उत्पादन' के समान ही 'वितरण'
१.
मा गृधः कस्य स्विद् धनम् । - ईशावास्योपनिषद् - १
२. कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः । - वही, २
३.
सत्यव्रत शास्त्री, 'संस्कृते पर्यायवाचिनः शब्दाः', (निबन्ध), 'परमेश्वरानन्दशास्त्रि - स्मृतिग्रन्थ:,' प्रधान सम्पा० – पुष्पेन्द्र कुमार शर्मा, नई दिल्ली १६७३,
-
पृ० ६०
४. प्रर्थस्य मूलं उत्थानम् । - अर्थ ०, १.१६.४०
५. कोषपूर्वाः सर्वारम्भाः । - वही, २.८.१, तथा कोषमूलो हि दण्ड: ।
वही,
८.१.४७
६. प्रच्युतानन्द घिल्डियाल, प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारक, वाराणसी,
१६७३, पृ० १४२
७. वार्त्तामूलो ह्ययं लोकः । - महा० शान्ति०, ६८.३५, तथा कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं लोकानामिह जीवनम् । - वही, ८६.७
मनु०, ७.११३-१४
८.
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