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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
प्रवृत्ति पर प्रकाश डाला जा सकता है। जैन संस्कृत महाकाव्यों के निम्नलिखित उल्लेख भू-स्वामित्व के 'हस्तान्तरणीय' तथा 'विकेन्द्रीकरण' सम्बन्धी विशेषताओं की पुष्टि करते हैं तथा मध्यकालीन अर्थव्यवस्था के सामन्तवादी ढांचे को विशद करने में उपयोगी प्रकाश डालते हैं
१. वराङ्गचरित महाकाव्य में राजानों को अनेक पुर, राष्ट्र आदि के उपहार के रूप में प्राप्त होने के संकेत प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार दहेज आदि के अवसर पर भी राजकुमार को सैकड़ों ग्राम दिए जाने के उल्लेख मिलते हैं।'
२. वराङ्गचरित में ही प्रानर्तपुर की पुनः स्थापना के उपरान्त राजा द्वारा नगर के समीपस्थ प्रदेशों में कृषि तथा पशु-पालक-ग्रामों आदि के बसाने का उल्लेख आया है । प्रादिपुराण के सन्दर्भ में गाँव बसाना, बेगार लेना, जनता से राजस्व वसूल करना राजा के शासकीय दायित्व स्वीकार किए गये हैं। वराङ्गचरित में राजा को ग्रामों का 'भोक्ता' भी कहा गया है।
३. पद्मानन्द महाकाव्य में भी नगर-भेदक विभिन्न प्रकार की इकाइयों के अन्तर्गत आने वाले कृषि आदि ग्रामों के शासकत्व के रूप में राजा की प्रशंसा की
underlying his oath of loyalty to his king, he was in duty bound to furnish for the king's Service. To break his oath was regarded as a hinous offence'.
-Thapar, Romila, A History of India, I, p. 242 १. तु०-पुराणि राष्ट्राणि च पत्तनानि 'समर्पयद्भूमिपतिः सुताय ।
-वराङ्ग०, ११.६७ तया-धनेन देशेन पुरेण साम्ना संदेय एवेति जगौ सुनीतिः ॥
-वराङ्ग०, १६.५७ २. तु०-ग्रामाः शतेन प्रहताः। -वही, १६.२१
धनेन देशेन पुरेण साम्ना। -वही; १६.५७ ३. वराङ्ग०, २१.४१-४८ ४. नेमिचन्द्र, प्रादिपुराण में प्रतिपादित भारत, पृ० ३६० ५. तु० --नाथोऽयमस्माकमसौ क्षितीशो भुनक्त्ययं ग्रामसहस्रमेकम् ।
-वराङ्ग०, ८.५० ६. पद्मा०, १६.१९२-२००