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राजनैतिक शासन तन्त्र एवं राज्य व्यवस्था
राजारों मन्त्रियों आदि की मन्त्रणा होने का उल्लेख हुआ है जिसका मुख्य विषय था-युद्ध की स्थिति पर विचार करना। द्विसन्धान में मन्त्रणा के पांच तत्त्व स्वीकार किए गये हैं। मंत्रणा का स्वरूप चार दृष्टियों से होता था-(१) पर्ष साधक अर्थ (२) अनर्थकारी अर्थ (२) अर्थबाधक अनर्थ तथा (४) अनर्थकारी अनर्थ ।
कोष-संग्रहण के साधन चन्द्रप्रभचरित में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि राजा को प्रजा से आय का षष्ठांश वेतन के रूप में प्राप्त होता है।४ द्विसन्धान महाकाव्य के एक उद्धरण से विदित होता है कि वणिक्पथ, खान, वन, सेतु, व्रज, दुर्ग तथा राष्ट्र राज्यकोषसंग्रहण के महत्त्वपूर्ण साधन थे।५ वणिक्पथ अर्थात् व्यापारियों के मार्गों से, खानों अर्थात् रत्नोत्पत्ति स्थानों से, वनों से, सेतु अर्थात् समुद्र तट पर आने जाने वाले व्यापारियों की नौकानों से, व्रजों अर्थात् पशु-पालन व्यवसाय करने वाले ग्रामों (गोकुलों) से, राजा अपने कोष की वृद्धि करते थे। दुर्ग से प्राय-वृद्धि होने का अभिप्राय दुर्गों में व्यापार प्रादि करने वाले लोगों से लिया गया 'शुल्क' संभव हो सकता है । नीतिवाक्यामृत को उद्धृत करते हुए टीकाकार नेमिचन्द्र ने 'राष्ट्र' को
१. द्विस०, सर्ग ११ २. 'मन्त्रं पञ्चकं शास्त्र-शुद्धः' द्विस०, ११.२ तथा तु०
'कथम्भूतं मन्त्रम् ? पञ्चकं पञ्चावया यस्य तम्, कस्मिन् मन्त्र्यम्, किम्मन्त्र्यम्, कैः सह मन्त्र्यमिति त्रिविधो विकल्पः । प्राद्यो देशकालापेक्षया द्विष्ठः द्वितीयः कर्मणामारम्भोपाय इत्यादिभिः पञ्चकः । कथम् ? इति कृत्वा मन्त्रिभिर्मन्त्रं समारेभे । भो मन्त्रिणः सर्वकार्याधुरीणाः ध्यायतां पर्यालोच्यताम्, का ? कार्यसिद्धिः, कथं यथा भवति ? दीर्घ दीर्घकालं दूरं दूरदेशविषये, कैः ? भवद्भिरिति सम्बन्धनीयमिति ।
-द्विस०, ११.२ पर पद० टीका, पृ० १९६-२०० ३. 'तेनालोच्यं योऽनुबन्धश्चतुभिः।' द्विस०, ११.३ तथा अनुबन्धैश्चतुभिः-अर्थोऽर्थः, अर्थमनर्थः, अर्थमर्थः, अनर्थमनर्थः,
-द्विस०, ११.३, पदकौमुदी-टीका०, पृ० २०० ४. रक्षाय प्रजया दत्तं षष्ठांशं वेतनोपमम् । चन्द्र०-१५.१३७ ।। ५. वणिक्पथे खनिषु वनेषु सेतुषु व्रजेषु योऽहनि निशि दुर्गराष्ट्रयोः ।
-द्विस०, २.१३ ६, द्विस, २.१३ पर पदकौमुदी-टीका, पृ० २८