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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
अनुसार सेना की भरती कई स्रोतों से तथा कई दृष्टियों से होती थी। मुख्य रूप से छ: प्रकार की सेना का उल्लेख है-(१) 'मौल'-वंश परम्परा से आई हुई क्षत्रिय प्रादि जातियां, (२) 'भृत्य'-केवल वेतन भोगी (३) 'श्रेणी'-शस्त्रविद्या में पारङ्गत जातियां (४) 'पारण्य' -भील आदि जङ्गली जातियां (५) 'दुर्ग'-केवल दुर्ग में ही रहकर लड़ने वाली सेना (६) 'मित्र बल-मित्र राज्यों की सेना ।'
हम्मीर महाकाव्य के अनुसार अलाउद्दीन ने हम्मीर के रणथम्भौर दुर्ग पर अधिकार करने के लिए सम्पूर्ण भारत से सेना एकत्र की जो अपने देशों के नाम से प्रसिद्ध थी, यथा-अङ्ग, तिलङ्ग, मगध, कलिङ्ग, बङ्ग, पाञ्चाल, बंगाल, नेपाल, डाहाल, तथा भिल्ल सेना।२ युद्ध के समय ये यवन सेना का ही प्रतिनिधित्व करती थीं । वराङ्गचरित महाकाव्य में वणिक् सेना का भी उल्लेख मिलता है । 3
युद्ध-धर्म
___सामान्य रूप से युद्ध प्रातः प्रारम्भ होते थे तथा सायङ्काल को समाप्त हो जाते थे। रणक्षेत्र में दोनों ओर की सेनाएं एकत्र होकर एक दूसरे की शक्ति का निरीक्षण करती थीं। युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व दोनों पक्षों के राजा अपने अमात्य
आदि से परामर्श करते थे। इस समय राजा अपने दूतों के आदान-प्रदान द्वारा अपने मन्तव्यों का प्रकाशन भी करते थे। यह समय ऐसा समय था जब कोई राजा युद्ध का विचार छोड़ आत्म-समर्पण भी कर सकता था। तदनन्तर वाद्ययंत्रों की घोषणा से वास्तविक युद्ध प्रारम्भ होता था । सिद्धान्त रूप से युद्ध भूमि में पराक्रम एवं युद्ध निपुणता को महत्त्व दिया जाता था। समान बल वाले योद्धा से ही युद्ध करना नीतिसम्मत था इसलिए पदाति के पदाति से, रथी के रथी से,
१. षड्विधं बलम्'-द्विसन्धान, २.११ पर नेमिचन्द्रकृत पदकौमुदीटीका
“मौलभूतकश्रेण्यारण्यदुर्गमित्रभेदनम् । मौलं पट्टसाधनम्, भृतकं पदातिबलम्, श्रेण्योऽष्टादशः, सेनापतिः, गणकः, राजश्रेष्ठी, दण्डाधिपतिः...,
पारण्यमाटविकम्, दुर्ग धूलिकोट्टपर्वतादि, मित्रं सौहृदम् ।" २. हम्मीर०, ११.१ ३. वराङ्ग०, सर्ग-१४ ४. वही, १७.२८ ५. वही, २१.६६-६७ ६. जयन्त०. १०.१०; हम्मीर० ११.६६ ७. हम्मीर०, ११.६० ८. जयन्त०, १०.२६