________________
राजनैतिक शासन तन्त्र एवं राज्य व्यवस्था
द्वारा अपराधियों पर अंकुश लगाया जा सकता है।' अल्प अपराध के लिए 'हाकार' मध्यम स्तर के अपराध के लिए 'माकार'२ तथा इससे बड़े अपराध के लिए ‘धिक्कार' नीति का प्रयोग किया जा सकता है।
जैन परम्परा में प्रचलित उपर्युक्त दण्डव्यवस्था की धारणा मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी एक सफल व्यवस्था कही जा सकती है। आधुनिक काल में प्रचलित दण्ड व्यवस्था के सुधारात्मक सिद्धान्त (Reformative Theory of Punishment) से भी इसकी किंचित् तुलना की जा सकती है। इस सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य को अपराधी होने के कारण दण्ड भोगी नहीं, अपितु सामाजिक परिस्थितियों से विवश रोगी के समान देखा जाता है। परिणामतः अपराध करने के प्रत्युत्तर में घो शारीरिक यातनाएं देना अथवा अर्थ-दण्ड देना अपराध की मूल समस्या का निवारण नहीं है । हाकार, माकार तथा धिक्कार सम्बन्धी दण्ड व्यवस्था में शारीरिक यातनाएं आदि देने के बदले अपराध करने के मनोबल को हतोत्साहित करने पर विशेष बल दिया गया है ।
- उपर्युक्त तीन नीतियों के असफल होने पर (१) बन्धन (२) ताड़न (३) निर्वासन तथा (४) प्राण दण्ड के क्रमानुसार प्रयोग द्वारा भी अपराधों पर नियत्रंण पाया जा सकता था। विभिन्न प्रकार के अपराध एवं दण्ड
चोरी तथा डाका-आलोच्य काल में पर द्रव्य-हरण की प्रवृत्ति सम्भवतः व्यावसायिक अपराध वृत्ति का रूप ले चुकी थी। चोरों के पास विशेष विद्याएं होती थीं। हेमचन्द्र ने इस सम्बन्ध में चार प्रकार की विद्याओं का उल्लेख किया है।
१ अवस्वपनिका विद्या-लोगों को निद्रामग्न कर देना ।५ २. तालोद्घटाटिनी विद्या प्रवेश करते हुए मार्ग में द्वार आदि की
बाधाओं को समाप्त करना। ३. स्तम्भनी विद्या-व्यक्ति को स्तब्ध अर्थात् क्रियाविहीन कर देना। ४. मोक्षणी विद्या-मुक्त करने की विद्या ।
१. तु०-आविश्चकार धिक्कारनीतिमन्यां प्रसेनजित् । -पद्मा०, ७.२२५ २. तु०-अल्पेऽपराधे हाकारं माकारं मध्यमे तु सः । -वही, ७.२१४ ३. तु० -सोऽहन् हाकार-माकार-धिक्कारैर्युग्मिदुर्न यम् । -वही, ७.२२६ ४. तु०-अवस्वपनिकातालोद्घाटिनीभ्यां समन्वितः । --परि०, २.१७१ तथा
वयस्य देहि मे विद्यां स्तम्भनी मोक्षणीमपि । वही, १.१८२ ५. तु०-जाग्रतं सकलं लोकं जम्बुवर्जमसूषुषत् । -वही, २.१७४ ६. तु० ते चौराः स्तब्धवपुषोऽभूवन् लेप्यमया इव । -वही, २.१७६