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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
उपलब्ध होता है।
___३. सोमदेव के यशस्तिलक चम्पू की टीका में राज्य के अठारह प्रकार के अधिकारी पदों में से 'महत्तर' नामक पद का उल्लेख भी मिलता है।' मंत्री के एकदम बाद 'महत्तर' का परिगणन करना इसके महत्त्व का द्योतक भी है।
४. वीरनन्दिकृत चन्द्रप्रभचरित महाकाव्य (९७०-६७५ ई०) में युद्ध प्रयाण के अवसर पर राजा पद्मनाभ तथा उसकी सेना के अहीरों के घोष ग्रामों के निकट से जाने पर कम्बल ओढ़े हुए गोशालाओं के अहीरों—'गोष्ठमहत्तरों' द्वारा दही तथा घी के उपहार से राजा का स्वागत करने का उल्लेख पाया है। ऐसा ही सन्दर्भ कालिदास के रघुवंश में भी पाया है किन्तु उन्होंने वहाँ पर 'गोष्ठमहत्तर' के स्थान पर 'घोषवृद्ध' का प्रयोग किया है जो इस तथ्य का सूचक है कि कालिदासयुगीन घोष ग्रामों के मुखिया (घोषवृद्ध) नवीं दशवीं शताब्दी ई० में 'गोष्ठमहत्तर' के नाम से व्यवहृत हो गए थे। चन्द्रप्रभमहाकाव्य की टीका काव्यपंजिका में 'गोष्ठमहत्तर' को 'गोपाल-प्रभु' अर्थात् 'अहीरों के स्वामी' के रूप में स्पष्ट किया गया है । चन्द्रप्रभचरित के प्रस्तुत उल्लेख से ज्ञात होता है कि अहीरों के ग्रामों में भी 'महत्तर' पद का अस्तित्व आ चुका था। ये ‘महत्तर' युद्ध प्रयाण आदि अवसरों पर राजा को उपहार देकर प्रसन्न करते थे। राजा द्वारा दान में दी गई भूमि के अनुग्रह के भुगतान का भी यह उचित अवसर था।
५ दशवीं शताब्दी ई० में निर्मित पुष्पदन्तकृत जसअरचरिउ (यशोधरचरित)
१. 'सेनापतिर्गणको राजश्रेष्ठी दण्डाधिपो मन्त्री महत्तरो बलवत्तरश्चत्वारो
वर्णाश्चतुरङ गबलं पुरोहितोऽमात्यो महामात्यश्चेत्यष्टादश राज्ञां तीर्थानि भवन्ति' । यशस्तिलक १.१६ पर उद्धत टीका
Kane, P.V., History of Dharmaśāstra, Vol. III, p. 113, fn. 148 २. चन्द्र०, १३.१-४१ ३. तु० ---रुचिरल्लकराजितविग्रहैविहितसंभ्रमगोष्ठमहत्तरैः । पथि पुरो दधिसर्पिरुपायनान्युपहितानि विलोक्य स पिप्रिये ।।
-वही, १३.४१ ४. हैयङ्गवीनमादाय घोषवृद्धानुपस्थितान् । . नामधेयानि पृच्छन्तौ वन्यानां मार्गशाखिनाम् ।।-रघुवंश, १.४५ ५. तु०-'गोष्ठमहत्तरैः-गोपालप्रभुभिः उपहितानि आनीतानि ।'
-चन्द्र०, १३.४१ पर पञ्जिका टीका ६. तु०-कोंडिल्लगोत्तणह दिणयरासु वल्लहरिंदधरमहयरासु ।
णण्णहो मंदिरि रिणवसंतु संतु अहिमाण मेरु कइ पुप्फयंतु ।। पुष्पदन्तकृत जसहरचरिउ, १.१.३-४, सम्पा० हीरालाल, दिल्ली, १९७२