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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
मल्लदेव, वस्तुपाल तथा तेजपाल ।' राजा वीर धवल ने वस्तुपाल तथा तेजपाल को अपना मन्त्री बनाया था ।
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निष्कर्ष
से
इस प्रकार जैन संस्कृत महाकाव्यों में प्रतिपादित राजनैतिक परिस्थितियों से यह भलीभांति सिद्ध हो जाता है कि मध्यकालीन सामन्तवादी राज्य व्यवस्था राजशास्त्र के आदर्शों के प्रति यद्यपि सावधान रहीं थी किन्तु परिस्थितियों की विवशता के कारण 'राज्य' का क्षेत्र सामन्तवादी राजनैतिक संगठनों से प्रभावित रहा था। किसी भी राजा के राज्य की स्थिति पूर्णतः सुदृढ़ नहीं थी । इस युग में अनेक राजवंशों का उत्थान व पतन इस तथ्य की ऐतिहासिक दृष्टि से भी पुष्टि करता है । सामन्त राजाओं नेतृत्व में चलने वाले तत्कालीन राजनैतिक संगठन राज्य-ग्रस्थिरता के प्रमुख कारण बने हुए थे । स्वयं राज्य परिवारों में ही उत्तराधिकार के लिए संघर्ष की स्थिति विद्यमान थी। किसी भावी राजकुमार को उत्तराधिकार से वंचित कराने में उसी राजा की रानियाँ तथा मन्त्री आदि भी षडयन्त्रों के सूत्रधार रहे थे ।
शासन तन्त्र से सम्बन्धित जैन महाकाव्यों के स्रोत मूलतः परम्परागत राजशास्त्र के ग्रन्थों की मान्यताओं से पूर्णतया प्रभावित होने के बाद भी युगीन परिस्थितियों के सम-सामयिक मूल्यों से अनुप्राणित रहे थे । इन तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में यह भी ज्ञात होता है कि जैन संस्कृत महाकाव्य जैन धर्म के प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से लिखे जाने पर भी राजनैतिक परिस्थितियों तथा विचारों का समसामयिक स्वरूप निष्पक्ष रूप से उद्घाटित करते हैं । इन महाकाव्यों में किसी भी दार्शनिक अथवा धार्मिक पूर्वाग्रह के कारण 'राजनैतिक मूल्यों' की यथार्थता नष्ट नहीं होने पाई है । परराष्ट्र नीति विषयक जैन महाकाव्यों के स्रोत तो तत्कालीन राज्य व्यवस्था' को स्पष्ट करने में पर्याप्त उपादेय सिद्ध होते हैं । मध्यकालीन भारत के राजनैतिक विचारों को इतिहास के अभिलेखादि साक्ष्य उतना विशद नहीं कर पाते जितना इन महाकाव्यों ने किया है। इसी प्रकार कोष वृद्धि आदि के सामन्तवादी तौर तरीकों ने राजनैतिक जगत् में 'मात्स्य न्याय' और 'प्रभुत्ववाद' की जो दयनीय स्थिति उत्पन्न कर दी थी, जैन महाकाव्यों की सामग्री उस पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश
है ।
राज्य व्यवस्था से सम्बन्धित जिन प्रशासकीय पदों का जैन महाकाव्यों में उल्लेख हुआ है ऐतिहासिक दृष्टि से वे महत्त्वपूर्ण हैं तथा अभिलेखीय स्रोतों के के आधार पर भी उनकी भलीभांति पुष्टि होती है । इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय
१. कीर्ति०, ३.२२-२४