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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
पूर्वज पृथ्वीपाल के
अधीनता से मुक्त
चन्द्रप्रभचरित में भी पृथ्वीपाल इसी प्रकार का एक उद्दण्ड राजा था जो पद्मनाभ से युद्ध करने के लिये लालायित था । पद्मनाभ को भी एक प्रकार से सामन्त राजाओं की श्रेणी में रखा जा सकता है। पृथ्वीपाल के दूत द्वारा यह सूचना देना भी महत्त्वपूर्ण जान पड़ती है कि राजा पद्मनाभ के पूर्वज राजाओं के अधीन थे किन्तु इन्होंने स्वयं को पृथ्वीपाल की कर लिया था । पृथ्वीपाल यह चाहता था कि राजा पद्मनाभ पूर्व परम्परा के अनुसार उसके अधीन रहे । पद्मनाभ के पुत्र सुवर्णनाभ ने वंशानुगत राज्य परम्परा की निन्दा की और स्वभुजार्जित राज्य को ही उचित माना है। इसी कारणवश युवराज सुवर्णनाभ पृथ्वीपाल जैसे उद्दण्ड एवं साम्राज्यवादी राजा से दण्डनीति के साथ व्यवहार करना चाहता था न कि 'साम' नीति से, क्योंकि 'साम' का प्रयोग सदैव नम्र राजा के साथ ही सुशोभित होता है । इसी सन्दर्भ में एक अन्य मन्त्री की मान्यता थी कि शत्रु क्योंकि शक्तिशाली है इसलिए उसके साथ 'दण्ड' का प्रयोग करने से राज्य नष्ट हो सकता है अथवा धन सम्पत्ति की क्षति भी संभावित है । अतः 'साम' के प्रयोग द्वारा राज्य को इस भावी क्षति से बचाना ही बुद्धिमत्तापूर्ण नीति होगी । इस 'साम' नीति के पक्षधरों का मुख्य तर्क यह था कि राजा को चाहिए कि वह सर्वप्रथम 'साम' का प्रयोग करे, इससे सफलता न मिलने पर 'भेद' का प्रयोग करे तदनन्तर 'दान' का श्रौर जब तीनों उपायों से सफलता न मिले तो अन्त में 'दण्ड' नीति प्रयोग करते हुए शत्रु पर आक्रमण कर देना चाहिए । ७ चन्द्रप्रभचरित महाकाव्य में वरिंगत इस युद्धनीति की वैचारिक पृष्ठभूमि में दो प्रतिवादी दृष्टिकोण मुख्यतः उभर कर आते हैं। राजकुमार सुवर्णनाभ सीधे श्राक्रमण करने का विचार रखता है जबकि मंत्री 'साम' नीति का पोषक है और युद्ध विभीषिका
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१.
चन्द्र०, १२.७७
२. कियतापि पुरातनं क्रमं यदतिक्रम्य विचेष्टसेऽन्यथा ।
प्रणमन्ति मदन्वयोद्भवं तव वंश्या इति पूर्वजस्थितिः । करिणेव मदश्चुतार्गला भवता सा सकलापि लङ्घिता ॥ - वही, १२.१० ११
३.
भव गत्वा प्रभुपादवत्सलः । -- वही, १२.२२ ४. वचनं क्व खलूपयुज्यते प्रभुरस्मि क्रमतोऽहमित्यदः । ननु खड्गबलेन मुज्यते वसुधा न क्रमसंप्रकाशनैः ॥
— वही, ११.२२
५. परवृद्धिनिबद्धमत्सरे विफलद्वेषिणि साम कीदृशम् । न हि सामतः परम् । - वही, १२.८१
६.
७.
प्रथमं द्विषि साम बुद्धिमानथ भेदादि युनक्ति सिद्धये । गुरुदण्डनिपीडना रिपोरियमन्त्या हि विवेकिनां क्रिया ॥
- वही, १२.८५
वही, १२.७६