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राजनैतिक शासन तन्त्र एवं राज्य व्यवस्था
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वस्तुतः अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर यह द्योतित होता है कि गुप्तकाल के उपरान्त ग्राम संगठन का विशेष महत्त्व बढ़ गया था फलतः सामन्त पद्धति की विशेष परिस्थितियों में अधिकाधिक व्यक्तियों को सन्तुष्ट करने की आवश्यकता अनुभव होने लगी थी, तथा भूमिदान एवं ग्रामदान के राजकीय व्यवहारों में भी वृद्धि हो गई थी। इस कारण 'महत्तर' से बड़े पद 'महामहत्तर', 'राष्ट्रमहत्तर' 'वीथिमहत्तर' आदि भी अस्तित्व में आने लगे थे। 'महामहत्तर' का उल्लेख धर्मपाल के खलीमपुर दान पत्र' में आया है जो अभय कान्त चौधुरी के अनुसार महत्तरों के सङ्गठन की ओर सङ्केत करता है ।२ 'महामहत्तर' सभी महत्तरों के ऊपर का पद था। 'वीथिमहत्तर' जिला स्तर पर नियुक्त किया गया राजकीय अधिकारी था। गुप्तवंश वर्ष १२० दान पत्र में इसका उल्लेख पाया है। 'राष्ट्रमहत्तर' का उल्लेख 'राष्ट्रग्राममहत्तर' के रूप में ५वीं शताब्दी ई० के गुप्त लेख में हुआ है।४ उत्तरवर्ती मध्यकाल में 'राष्ट्र महत्तर' के आधार पर मंत्री आदि के लिए 'महत्तर' का प्रयोग होने लगा । वास्तव में गुप्तकाल से लेकर १२वीं शताब्दी ई० तक के काल में 'महत्तर' एक सामन्तवादी अलङ्करणात्मक पद के रूप में प्रयोग किया जाने लगा था। समय-समय पर तथा भिन्न-भिन्न प्रान्तों में 'महत्तर' के प्रयोग में विभिन्न दृष्टिकोण रहे थे । जैन साहित्य तथा अन्य मध्यकालीन भारतीय साहित्य में 'महत्तर' से सम्बन्धित विभिन्न तथ्य इस प्रकार हैं -
१. कल्पसूत्र की टीका में आए 'कौटुम्बिका' (कौटुम्बिया) को 'ग्राममहत्तर' के तुल्य स्वीकार करते हुए उसे 'ग्रामप्रभु' 'अवलगक', 'कुटुम्बी' आदि शब्दों से स्पष्ट किया गया है।
२. जिनसेन के आदि पुराण में विभिन्न राजदरबारी अधिकारियों के प्रसंग में 'महत्तर' का उल्लेख आया है। ६ इसके दूसरे पाठ में ‘महत्तम' का प्रयोग भी
१. Khalimpur Plate of Dharmapāla, E.I., Vol. IV, plate No.
34, 1.47 २. वही, Vol. IV, plate No. 34, 1.47 ३. Indian Historical Quarterly, Vol. 19, plate 12, pp. 16, 21 ४. तु०- ‘राष्ट्रग्राममहत्तरः' ५. 'कौटुम्बिकाः कतिपय कुटुम्बप्रभवोवलगका: ग्राममहत्तराः',-कल्पसूत्र, २.६१
पर उद्धृत टीका; Stein Otto, The Jinist Studies, Ahmedabad, 1948,
p. 79.
सामन्तप्रहितान् दूतान् द्वा:स्थैरानीयमानकान् । संभावयन् यथोक्तेन संमानेन पुन: पुनः ।। परचक्रनरेन्द्राणामानीतानि महत्तरैः/महत्तमः । उपायनानि संपश्यन् यथास्वं तांश्च पूजयन् ॥
-आदिपुराण, ५.१०-११