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जैन महाकाव्यों में भारतीय समाज
प्रायः चोर दस्यु नगर के धनिक सार्थवाहों के घर की ताक में रहते थे । ' विवाह आदि अवसरों पर ये डाका डालने की विशेष योजनाएं बनाते थे । चोर डाकू पर्वत गुफा प्रादि में छिपे रहते थे । 3 वराङ्गचरित में ऐसी पुलिन्द जाति का उल्लेख आया है जो सार्थवाहों के काफिलों पर अचानक आक्रमण कर धन लूट लेती थी । इस प्रकार बड़े चोरों तथा डाकुओं की अपनी सेना भी होती थी। चोरों के अपने गुप्तचर भी होते थे जो धन सम्पत्ति के भण्डारों की सूचना देते रहते थे । कुछ पक्षी भी इस कार्य के लिए प्रशिक्षित किए जाते थे। पथिकों को देखकर ये पक्षी उनके धन की सूचना चोर दस्युनों को दे देते थे । ७
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चन्द्र के परिशिष्ट पर्व में आये उल्लेख के अनुसार कभी कभी राज्य के असन्तुष्ट व्यक्ति भी चोरी डाका डालने का व्यवसाय अपना लेते थे । राजकुमार ' प्रभव' को राज्य न मिलने पर उसने इसी व्यवसाय द्वारा अपनी जीविका को चलाया 15
उल्लेख के अनुसार राजाओं
सूचनाएं रखते थे । नगर
चोरों पर नियन्त्रण -- यशोधरचरित में आए के अपने गुप्तचर थे जो चोर दस्युत्रों के स्थानों की में चोरी की वस्तुओं को बेचना पूर्णतः निषिद्ध था । १० जो भी इस प्रकार के चोरी के सामान को बेचता था उसे राजा के कर्मचारी उसी समय बन्दी बना लेते थे । ११ कीर्तिकौमुदी महाकाव्य के अनुसार ग्रन्थ के लेखक कवि सोमेश्वर के समकालिक राजा लावण्य प्रसाद के राज्य में चोरी के अपराधों पर विशेष नियन्त्रण पा लिया गया था । फलतः उसके राज्य में चोरों का आतङ्क पूर्णतः शान्त हो चुका था । १३
१. तु० – तं सार्थं लुटितुं तत्र चौरव्याघ्रा दधाविरे । परि०, २.१६२ २ . वही, २.१७६
३. वही, २.१६६ ४. वराङ्ग॰, सर्ग - १८
५. वही,
६. परि०, २.१७१
७. वही, ८.१५६
८. वही, २.१७०
६. यशो०, २.२०
१०. परि०, १२१८, २१६
११.
वही, १.२१६
१२. तु०. - न चौरास्तस्य सौराज्ये दौरात्यं कुर्वते ववचित् । - कीर्ति०, २.७०