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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
प्रायः सौहार्दपूर्ण वातावरण उपलब्ध होता है। इन कारणों से उत्तराधिकार जैसे महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर राजा प्राप्त-प्रमाण माना जाता था और मन्त्रिमण्डल भी राजा की इच्छा के अनुकूल ही परामर्श देता था।' राज्याभिषेक
राज्याभिषेक को जैन संस्कृत महाकाव्यों में अत्यधिक महत्त्व दिया गया है । राज्याभिषेक का एक महोत्सव के रूप में वर्णन करना प्रायः सभी जैन संस्कृत महाकाव्यों की प्रवृत्ति रही है। सभी महाकाव्यों में राज्याभिषेक वर्णन मिलता है। किन्हीं किन्हीं महाकाव्यों में तो अनेक बार राज्याभिषेक का वर्णन किया गया है। राज्याभिषेक महोत्सव राजा एवं प्रजा दोनों के लिए हर्षोन्मादकअवसर था।
राज्याभिषेक का समय
राज्याभिषेक के समय राजकुमार की निश्चित प्रायु क्या हो, इस विषय में जैन संस्कृत महाकाव्यों से कोई सुनिश्चित प्रमाण नहीं मिलते । प्रायः राजकुमार के युवा होने, शिक्षा पूर्ण करने तथा विवाहोपरान्त ही राज्याभिषेक किया जाता था ।५ अथवा राजा जब समझे कि वह अब वृद्ध हो चुका है और स्वयं राजकाज सम्भालने में असमर्थ है तब वह राजकुमार का राज्याभिषेक करने की इच्छा करता था।६ तृतीय वयस में जब राजा को सांसारिक जीवन से विरक्ति हो जाय और
१. तु०-प्रथैवं मन्त्रिणोऽप्यूचुः; स्वामिन्नेवंधिया धियः ।
-त्रिषष्टि० १.१.६३ २. वराङ्ग०, सर्ग-२३, द्विस०, सर्ग-४, चन्द्र०, सर्ग-४, परि०, सर्ग-६, धर्म०,
सर्ग-१८, जयन्त, सर्ग-६, प्रद्युम्न०, सर्ग-८, पद्मा०, सर्ग-१२, परि०, सर्ग-६ ३. वराङ्ग०, सर्ग-११ तथा २३, चन्द्र०, सर्ग-४, ५ तथा ७, धर्म०, सर्ग-२०
तथा २७ ४. चन्द्र०, ७.३१ ५. चन्द्र०, ४.१-५, ५.१-५०, यशो०, २.१५ ६. तु० --तृतीयवयसः शस्त्रमिव यौवनघातकम् ।
तन्मूर्ध्नि पलितं दृष्ट्वा राजा दुरमनायत् ॥ राजा प्रोवाच जिहमि नाहं पलितदर्शनात् । दौर्मनस्ये पुनरिदं कारणं जीवितेश्वरि ।।
- परि०, १.६८-६९