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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
दार्शनिक मान्यताओं के विषय में कहा जा सकता है कि इनका सम्बन्ध जैन धर्म के प्रभाव वाले प्रदेशों से अधिक रहा होगा । किन्तु अन्य राजनैतिक तथा सामाजिक चित्रण पर तत्कालीन विविध राजवंशों, राजनैतिक परिस्थितियों तथा अन्य सामाजिक संस्थानों का भी बहुत प्रभाव पड़ा है। १२-१३वीं शताब्दी से सम्बद्ध ऐतिहासिक महाकाव्यों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि सुदृढ़ रही है तथा राजस्थान एवं गुजरात के राजनैतिक वातावरण का इन पर विशेष प्रभाव भी पड़ा है। कुल मिलाकर जैन संस्कृति से अनुप्राणित जैन संस्कृत महाकाव्य मध्यकालीन भारतीय इतिहास की सामाजिक पृष्ठभूमि को विशद करने वाले महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक स्रोत सिद्ध होते हैं।
आलोच्य जैन संस्कृत महाकाव्यों का संक्षिप्त परिचय (१) जटासिंहनन्दिकृत वराङ्गचरित (८वीं शती ई०)
अलंकृत शैली से सम्पुष्ट वराङ्गचरित महाकाव्य के रचयिता जटासिंह नन्दि थे, जिनके जटिल मुनि एवं जटाचार्य उपनाम भी प्रचलित हैं । ' वराङ्गचरित के अन्तःसाक्ष्यों से सिद्ध होता है कि जटिल मुनि कर्नाटक देश के निवासी थे । उपाध्ये महोदय के अनुसार वराङ्गचरित की रचना सातवीं-आठवीं शताब्दी ई० में हुई थी।
वराङ्गचरित महाकाव्य में ३१ सर्ग हैं। इस प्रकार महाकाव्य लक्षणों के अनुसार इस महाकाव्य में एक सर्ग अधिक है । 3 स्वयं कवि ने भी अन्य महाकाव्यों की भाँति इसे 'महाकाव्य' संज्ञा से सम्बोधित न कर 'धर्मकथा' के रूप में सम्बोधित किया है । डा० नेमिचन्द्र शास्त्री महोदय ने इस महाकाव्य को जैन संस्कृत महाकाव्यों के सन्दर्भ में विशिष्ट स्थान नहीं दिया है । सम्भव है कि उन्होंने वराङ्गचरित को पुराण मानकर इसका विशेष अध्ययन प्रस्तुत नहीं किया हो । डा० ए० एन० उपाध्ये महोदय वराङ्गचरित को एक महाकाव्य के रूप में भी स्वीकार करते हैं । ५ अन्य जैन संस्कृत महाकाव्यों को दृष्टिपथ में रखते हुए वराङ्गचरित भी इन
१. उपाध्ये ए० एन०, वराङ्गचरित, बम्बई, १६३८, भूमिका, पृ० १६ २. वही, पृ० ७१ ३. खुशालचन्द्र गोरावाला, वराङ्गचरित (हिन्दी अनुवाद), मथुरा, १९५३,
भूमिका, पृ० १६ ४. तु०-'इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसन्दर्भ वराङ्ग
चरिताश्रिते' वराङ्ग०, पुष्पिका ५. उपाध्ये, वराङ्गचरित, भूमिका, पृ० ६८-६६