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राजनैतिक शासन तन्त्र एवं राज्य व्यवस्था
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मान्यता है कि राजा सद्-असद् विवेक द्वारा 'साम-दान' आदि का प्रयोग करे ।' चारों उपायों का स्वतन्त्र अस्तित्व है; यथा 'साम' से मित्र प्राप्ति होती है तथा 'दण्ड' से शत्रु प्राप्ति होती है; इसलिये 'साम' के स्थान पर 'दण्ड' का और 'दण्ड' के स्थान पर 'साम' का प्रयोग करना युक्तिसङ्गत नहीं । २ 'साम' के द्वारा शत्रु का प्रतीकार, सम्भव नहीं इसलिए गुप्तचरों द्वारा शत्रुराज्य में 'भेद' डाल देने से राज्य को जीतना सुगम हो जाता है।
द्विसन्धान० के विचारों से ऐसा अवगत होता है कि 'साम-दान', आदि का क्रम से प्रयोग कर पुरातन राजनैतिक मान्यताओं का अनुसरण करना उचित नहीं है अपितु देशकालानुसारी परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में ही चतुर्विध उपायों का प्रयोग करना चाहिए । चन्द्रप्रभ० में भी युवराज सुवर्णनाभ द्वारा सैद्धान्तिक नीति प्रयोग की कटु आलोचना की गई है और यथापरिस्थिति उपायों के व्यावहारिक प्रयोग की सराहना की गई है। चतुविध उपाय तथा पक्ष-विपक्ष
आलोच्य युग में सामन्तवाद की उत्तरोत्तर वृद्धि होने के कारण राजनैतिक जगत् में पर्याप्त अस्थिरता के दर्शन होते हैं । षाड्गुण्य' तथा चतुर्विध उपायों के प्रयोग का आदर्श मापदण्ड यद्यपि सिद्धान्ततः स्वीकार्य था तथापि व्यावहारिक दृष्टि से इन राजनैतिक सिद्धान्तों का दुरुपयोग भी किया जाने लगा था। प्रायः उद्दण्ड राजा सामन्त राजाओं की सतत वृद्धि एवं कोश संचय करने के लिए 'दण्ड' का भय दिखाकर निर्बल राजाओं को बलपूर्वक अपने अधीन कर लेते थे। वराङ्गचरित६ तथा चन्द्रप्रभ महाकाव्य में इस प्रकार चतुर्विध उपायों का दुरुपयोग करने वाले राजाओं का वर्णन प्राप्त होता है जो स्वयं 'दण्ड' प्रयोग के लिए असमर्थ थे तथा बाद में पराजित भी हो गए तथापि उनकी ओर से ही सर्वप्रथम युद्ध का प्रस्ताव आया था। दोनों महाकाव्यों में वर्णित मंत्रिमण्डल ने इन उद्दण्ड राजानों की कटु आलोचना की है। दूसरी ओर अल्प शक्ति वाले राजाओं
१. द्विस०, ११.१६ २. तु०-साम्ना मित्रारातिपातो भवेतां दण्डे नारं केवलं नैव मंत्री। सान्त्वे दण्ड: साम दन्डे न वहनेर्दाहोऽस्त्येकः शैत्यदाहो हिमस्य ।
-द्विस०, ११.१७ ३. द्विस०, ११.१६ ४. द्रष्टव्य-चन्द्र०, १२.८५-८८ ५. चन्द्र० १२.६५-८५; वराङ्ग०, १६.६१; द्विस० ११.१७ ६. वराङ्ग०, सर्ग १६ ७. चन्द्र०, सर्ग १२