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राजनैतिक शासन तन्त्र एवं राज्य व्यवस्था
हानि, 'भेद' से अपयश प्राप्ति तथा 'दण्ड' से सैन्य बल की क्षति होती है किन्तु' साम' के प्रयोग से किसी भी प्रकार की हानि नहीं होती ।" राजा को स्वाभिमान की चिन्ता किए बिना उद्दण्ड तथा प्रत्याचारी राजा के साथ 'दण्ड' तथा 'भेद' की नीति से व्यवहार नहीं करना चाहिए प्रपितु 'दान' के प्रयोग के साथ 'साम' नीति का प्रश्रय लेते हुए शत्रु राजा को विशाल धनराशि, ग्राम-नगर-हाथी आदि दान देकर प्रसन्न करने का प्रयत्न करना चाहिए ।
'साम' की उपर्युक्त नीति से असहमत होने वाले पक्ष का विचार था कि कुटिल व्यक्ति के साथ कुटिलता का व्यवहार ही समीचीन है। विजिगीषु राजा यदि उद्दण्ड प्रकृति वाले राजा के साथ भी दास्य भाव निःसन्देह वह निन्दागर्हित प्राणी है तथा उसका जीवन व्यर्थ है । ४
व्यवहार करेगा तो
२. दान - 'साम' नीति को सुदृढ़ प्राधार देने के लिए 'दान' का प्रयोग किया जाता है । इसलिए सिद्धान्ततः 'साम' तथा 'दान' युद्ध विरोधी नीति के अंग
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हैं ५ अतएव 'दान' की पक्ष विपक्षगत तार्किक पृष्ठभूमि 'साम' के समान ही माननी चाहिए । 'साम' तथा 'दान' में कुछ अन्तर भी है वह यह कि समान शक्तिशाली राजा केवल 'साम' के व्यवहार से युद्धाभिमुख हो सकते हैं किन्तु शक्तिशाली तथा निर्बल राजाओं के मध्य 'साम' के साथ 'दान' का प्रयोग आवश्यक है । प्रायः दिग्विजय के लिए प्रयाण करने वाले राजाओं के मार्गवर्ती राज्य युद्ध से बचने के
१. तु० - धनहानिरुपप्रदानतो बलहानिनियमेन दण्डतः । यशः कपटीति भेदतो बहुभद्रं नहि सामतः परम् ।।
- चन्द्र०, १२.८१ २. तु० - धनेन देशेन पुरेण साम्ना रत्नेन वा स्वनेन गजेन वापि । स येन येनेच्छति तेन तेन संधेय एवेति जगी सुनीतिः ।
- वराङ्ग०, १६.५७, तथा चन्द्र०, १२.७६-७ε ३. तु० – परवृद्धिनिबद्धमत्सरे विफलद्वेषिरिण सामकीदृशम् । सुतरां स भवेत्खरः प्रियैरविभाव्यप्रकृतिर्हि दुर्जनः ॥
- चन्द्र०, १२.८५
४.
चन्द्र०, १२.६१-६३
५. तु० - साम प्रेमपरं बाक्यं दानं वित्तस्य चार्पणम् । भेदो रिपुजनाकृष्टिर्दण्डः श्री प्राण संहृतिः ॥
- द्विस० ४.१६ पर पदकौमुदी टीका, पू० ५० वराङ्ग०, १६.५३-५७ तथा चन्द्र०, १२.८१ ६. काणे, धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग २, पृ० ६६०-६१