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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज क्या देगा ?' इस प्रकार राजारों ने सेनापति सुषेण को उच्चपद-धन आदि के प्रलोभनों से भेदनीति का प्रयोग करना चाहा किन्तु वे असफल रहे । सुषेण ने युद्ध में उन सभी राजानों को परास्त भी कर दिया ।२ उनसे प्राप्त अपार धनराशि राजा धर्मनाथ के चरणों में समर्पित कर दी। किन्तु राजा धर्मनाथ ने इस धनराशि को दान में दे दिया।
४. दण्ड-दण्डनीति अर्थात् युद्ध के सम्बन्ध में जैन संस्कृत महाकाव्यों में स्पष्ट रूप से दो विरोधी विचार-धाराएं उभर कर आई हैं। युद्ध के समर्थक पक्ष की यह मान्यता थी कि 'दण्ड' प्रयोग ही सर्वोत्कृष्ट उपाय है; 'साम-दानादि' शत्रु का पूर्ण प्रतीकार करने में असमर्थ है।५ 'दण्ड' का 'भेद' के साथ प्रयोग करने से 'दण्ड नीति' के प्रयोग में असमर्थ राजा भी शत्रु के शत्रु राजाओं से मित्रता कर एवं शत्रु के मित्र राजारों में शत्रुता उत्पन्न कर 'दण्ड' का सफलतापूर्वक प्रयोग कर सकता है।६ राजनैतिक जगत् में प्रायः उद्दण्ड एवं साम्राज्यवादी राजा 'साम-दान-भेद' की उपेक्षा कर सीधे दण्ड प्रयोग द्वारा समीपवर्ती राजाओं में भय एवं मिथ्या पराक्रम से आतङ्क फैलाना चाहते थे। इसलिए चतुर्विध उपायों के 'साम-दान-भेद' तथा 'दण्ड' के क्रमानुसारी प्रयोग की उपेक्षा करने वाले इन राजारों के आगे नतमस्तक होना समीचीन नहीं रहा था। समय की इन परिस्थितियों के कारण 'दण्ड' प्रयोग शास्त्रानुमोदित न रहकर समयानुसारी बन गया था । युद्ध पक्षपाती वर्ग इन परिस्थितियों में 'साम-दान' का बहिष्कार करते थे और 'भेद' तथा 'दण्ड' के प्रयोग को प्रशस्त मानते थे । युद्ध करने की आशङ्कामों से भयभीत पक्ष की यह
१. धर्म०, १६.२४ २. वही, १६.६४ ३. वही, १६.१०३ ४. वही, १९.१०४ ५. वराङ्ग०, १६.७०, चन्द्र० १२.८५ ६. वराङ्ग०, १६.७३, चन्द्र०, १२.६७-६८ ७. वराङ्ग०, १६.१५, चन्द्र० १२.३४ ८. तु०-चन्द्र०, १२.६१-६४ ६. चन्द्र०, १२.८३ १०. तु०-कालो व्यतीतो नरदेव शान्तो दानाश्रयस्थानविधिस्तथैव । उपस्थिती संप्रति भेददण्डौ तस्माद्वये धत्स्व मतिं न चान्यत् ॥
-वराङ्ग०, १६.७० तथा नहि वज्ररायुधोचिते क्रमते ग्रावरिण लोहमायुधम् ।।
-चन्द्र०, १२.८६