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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज अन्तर्गत दो राज्यों में मित्रतापूर्ण एवं परोपकारिता की भावना रहती है ।' निर्बल राजा शक्तिशाली राजा को उपहारादि से सन्तुष्ट कर 'दान' नीति का आश्रय ले सकता है । शत्रु राज्य को निर्बल करने के लिए विविध प्रकार के किए गए उपाय 'भेद' के अन्तर्गत आते हैं। 3 'दण्ड' का अभिप्राय है युद्ध करना । जैन संस्कृत महाकाव्यों में 'साम', 'दान', 'दण्ड' तथा 'भेद' का विशेष उल्लेख पाया है। इनके व्यावहारिक प्रयोग की दृष्टि से प्राचीन राजनीतिज्ञों की मान्यताएं रही हैं कि 'साम' 'दान' 'भेद' इन तीन उपायों के असफल हो जाने पर ही राजा को 'दण्ड' अर्थात् 'युद्ध' नीति का प्रयोग करना चाहिए । हम्मीर० के मतानुसार भी 'साम', 'दान'
और 'भेद' 'धर्म' 'अर्थ' और 'काम' की भाँति सेवनीय हैं। इनके असफल हो जाने पर 'मोक्ष' के समान 'दण्ड' नीति का प्राश्रय लेना चाहिए।
वराङ्ग चरित के अनुसार राजा को सर्वप्रथम 'साम', 'दान' के प्रयोग द्वारा व्यवहार करना चाहिए तदनन्तर 'भेद' तया 'दण्ड' का प्रयोग उपयुक्त है।" चन्द्रप्रभ० के अनुसार भी 'साम', 'दान' के प्रयोग से सिद्धि न मिलने पर भेद' तथा 'दण्ड' का प्रयोग करना उचित है। इस सम्बन्ध में तर्क देते हुए चन्द्रप्रभ० का मत है कि 'साम' ही चारों उपायों में सर्वोत्कृष्ट उपाय है, क्योंकि 'दान' से धन हानि, 'दण्ड' से सेना-विनाश, तथा 'भेद' से मायावी होने का अपयश प्राप्त होता है इसलिए 'साम' नीति ही सर्वाधिक लाभप्रद है। द्विसन्धान महाकाव्य की यह
१. शुक्र०, ४.२५, २८ २. शुक्र०, ४.२५, २६ ३. शुक्र०, ४.३० ४. वराङ्ग०, १६.५४ ५. द्विस०, ११.१७, १६; चन्द्र०, १०.८१; जयन्त०, ११.७; पद्मा०, १०.७५;
हम्मीर ८.७८ ६. धर्मार्थकामा इव सामदानभेदा: क्रमेणव पुरा प्रयोज्याः । सर्वात्मनैषामसति प्रचारे धार्या मतिर्मोक्ष इवाथ दण्डे ।।
-हम्मीर०, ८.७८ ७. वराङ्ग०, १५.७० ८. चन्द्र०, १२.७६ ९. त०-धनहानिरुपप्रदामतो बलहानिनियमेन दण्डतः । अयशः कपटीति भेदतो बहुभद्रं नहि सामतः परम् ।
-चन्द्र०, १२.८१
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